भगवान कृष्ण के जीवन में एक के बाद एक, अनेकों घटनाएँ हुईं। यह सभी घटनाएँ एक अबाध क्रम में हुईं। इन में से केवल कुछ घटनाओं को अलग करना अथवा उनका चुनाव करना अति कठिन है।
तथापि, इस परम आदरणीय देवता के गुणों का बखान करने के लिए उनके जीवन में कुछ ऐसे निर्णायक पल आए है जो स्पष्टत: अलग से दिखाई देते हैं। इन पलों की अनेक विद्वानों द्वारा इतने विभिन्न प्रकार से व्याख्या की गई है, उनका विश्लेषण किया गया है, उन्हें श्रद्धापूर्वक देखा गया है कि इतिहास में वे अमर हो गए हैं। “भारत ज्ञान” के चश्मे से देखें तो इन में से कुछ घटनाओं को हम निम्नानुसार देख सकते है। “भारत ज्ञान” हमारे स्वर्णिम इतिहास में ज्ञान, अज्ञात अथवा कम ज्ञात, इधर उधर बिखरे हुए वृत्तांतों को एक लयबद्ध तरीक़े से पिरोने और उन्हें प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करने और उनके अन्वेषण करने का प्रयास है।
माँ यशोदा को ब्रह्मांड के दर्शन
एक दिन, बालक कृष्ण ने बगीचे में खेलते हुए मिट्टी के कुछ कण खा लिए। उन पर उनकी हर पल दृष्टि रखने वाली माँ यशोदा ने यह देख लिया और उस मिट्टी को उनके मुँह से निकालने का प्रयास करने लगी। उस पल उन्होंने बालक कृष्ण के मुँह में संपूर्ण ब्रह्मांड को देखा – जिसमें सौर मंडल, आकाश गंगाएँ, पूरा ब्रह्मांड ही था।
इस घटना से उसे पता चला कि बच्चा कोई साधारण बच्चा नहीं था।
कंस के समस्त असुरों को परास्त करना
बहुत सी दन्तकथाओं के अनुसार पूतना, अरिष्टासुर, और अघासुर आदि, अनेकों असुर जो कंस द्वारा कृष्ण को मारने के लिए भेजे गए थे, श्री कृष्ण ने अपने बाल्यकाल में ही उन पर विजय प्राप्त की। ब्रजभूमि के 24 फलदार उपवन तथा अनेक वन कृष्ण के असाधारण साहसिक कार्यों के साक्षी बने। इन्ही वनों में, जो कृष्ण के क्रीड़ा स्थल थे, उन्होंने उन असुरों को पराजित किया और उनका वध किया:
- धनुकासुर, जिसका रूप एक गधे के रूप से मिलता था, और जो बृजवासियों को उपवन में आने से रोकता था।
- बकासुर, जिसका आकार एक सारस के रूप में था।
- अघासुर, जिसकी आकृति एक बड़े साँप से मिलती थी, और जिसे कंस ने डसने और अपने विष से कृष्ण को बचपन में मारने के लिए भेजा था।
- अरिष्टासुर, जिसका रूप एक बैल के रूप में था, और जो नदी का तट खोद कर ब्रज में घुस आया था।
- कालिया नाम का जहरीला नाग, जो यमुना के जल में विष घोल रहा था।
गोवर्धन पर्वत को उठाना
एक बार ब्रज के वासी भगवान इन्द्र के वार्षिक उत्सव के लिए सब पूजा की तैयारी में लगे थे। नन्हे कृष्ण ने जब यह देखा तो उन्होंने ब्रज के लोगों को कहा कि इन्द्र की प्रार्थना करने की अपेक्षा अपने खेतों, झीलों, चरागाहों तथा गायों जैसी प्रकृति द्वारा दी गई संपत्तियों की पूजा अर्चना और उनकी प्रार्थना करो। उन्होंने ब्रजवासियों को गोवर्धन नाम के पर्वत, “गोवर्धन गिरि” की प्रार्थना करने को तैयार कर लिया।
जब ब्रजवासियों ने ऐसा किया तो इन्द्र क्रोधित हो गए और प्रचण्ड क्रोध से बहुत तेज़ बारिश होने लगी। लोग भाग कर कृष्ण के पास गए और उनसे उस बरसात को रोकने का उपाय पूछने लगे। तब कृष्ण गोवर्धन गिरि तक गए और उस पर्वत को उन्होंने अपनी कनिष्ठा (छोटी उँगली) पर उठा लिया। प्रत्येक व्यक्ति ने अपने पशुधन सहित उस पर्वत के नीचे शरण ले ली।
सात दिन तक लगातार मूसलाधार बारिश होती रही। उसके पश्चात् जब इन्द्र का क्रोध शांत हुआ, तो तूफ़ान और बारिश में ठहराव आया और ब्रज में शांति लौटी।
उडुपी में मूर्ति का रहस्य
माता देवकी ने कृष्ण का बाल्यकाल देखने की इच्छा जताई। उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए कृष्ण ने उस समय के वास्तुकला विद्वान विश्वकर्मा से शालिग्राम पत्थर से तराशी हुई एक मूर्ति बनवाई। यह मूर्ति बाद में रुक्मिणी को दे दी गई। कृष्ण द्वारा संसार छोड़ने के उपरांत यह मूर्ति उस समय के द्वारिका देश के किसी भाग में मिट्टी में दब गई। द्वारिका की मिट्टी, जिसमें यह मूर्ति दबी रही, को “गोपीचंदन” कहा जाता है। इसमें गोपी का तात्पर्य हल्का भूरा तथा चंदन, एक चंदन जैसी लेई (पेस्ट) है।
कालांतर में एक नाविक को मिट्टी का यह भारी पिण्ड मिला जिसका उपयोग उसने अपनी नाव के लिए स्थिरक भार (बैलास्ट) के रूप में किया। वह नाविक एक बार नाव चलाते हुए तूफान से घिर गया और तब उसको माधवाचार्य नाम के संत ने बचाया। उसकी नाव में वह मूर्ति देख कर संत ने नाविक से वह मूर्ति मांग ली और उसे उडुपी में स्थापित कर दिया।
अपने माता-पिता की जेल से रिहाई
कहा जाता है कि अपने दुष्ट मामा के निमंत्रण पर कृष्ण अपने भाई बलराम के साथ मथुरा गए। उस समय तक 12 वर्षीय कृष्ण ने अपने शौर्य और निडरता के कारण बहुत ख्याति प्राप्त कर ली थी। मथुरा में दोनों भाइयों को कंस के मल्लयोद्धाओं, मुष्टिका और उनके मल्लयोद्धा साथी चानूरा ने मॉल युद्ध करने की चुनौती दी। उन दोनों योद्धाओं को इस पारंपरिक खेल में हराने के उपेन्त कृष्ण ने कंस को चुनौती दी और उसे मार दिया।
तत्पश्चात् कृष्ण ने कारागृह से अपने माता-पिता, देवकी और वासुदेव को मुक्त किया। उन्होंने अपने नाना, उग्रसेन को भी, जिनसे कंस ने उनका राज्य छीन लिया था, मुक्त किया और उन्हें उनका राज्य सौंप कर राज्याभिषेक करवाया।
कंस की मृत्यु से उनके ससुर जरासंध आग-बबूला हो गए। कंस की मौत का बदला लेने के लिए जरासंध ने अगले कुछ वर्षों में सत्रह बार आक्रमण किया। हर बार कृष्ण और बलराम ने मथुरा की रक्षा की।
महर्षि संदीपनी के आश्रम में पाँचजन्य शंख की प्राप्ति
कृष्ण और बलराम अपनी शिक्षा के लिए महर्षि संदीपनी के आश्रम में उज्जैन गए, जो उस समय अवन्तिका के नाम से जाना जाता था। वहाँ कृष्ण ने बहुत से मित्र बनाए, जिनमें उनके प्रसिद्ध मित्र सुदामा भी थे।
आश्रम की एक कहानी के अनुसार कहा जाता है कि कृष्ण को वहाँ अपने गुरु द्वारा सौंपे गए किसी कार्य को पूरा करते हुए प्रसिद्ध पाञ्चजन्य शंख प्राप्त हुआ। यह उनकी गुरु दक्षिणा थी। वर्षों पश्चात्, श्री कृष्ण के इसी पाञ्चजन्य शंख का उपयोग कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध प्रारम्भ का शंखनाद करने के लिए किया गया।
प्रसिद्ध पौराणिक मित्रता
सुदामा और कृष्ण की मित्रता एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा बन गई है। जब गरीबी से त्रस्त सुदामा अपने मित्र को मिलने गए, तो वह भेंटस्वरूप अपने साथ पोहा (कुछ चावल के टुकड़े) ही ले जा पाए। अपने मित्र कृष्ण के वैभवशाली महलों को देख कर उन्हें यह भेंट देते हुए बहुत आत्मग्लानि हो रही थी। तथापि, कृष्ण ने उन चावलों को अति चाव से खाया और अपने मित्र से मिल कर प्रसन्न हुए।
सुदामा जब अपने घर वापिस पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि उनके झोपड़ीनुमा घर के स्थान पर एक भव्य महल बन गया था। यह उनके मित्र कृष्ण की ओर से एक भेंट थी।
नारकासुर तथा उनकी 16,000 पत्नियाँ
यह भविष्यवाणी की गई थी कि नारकासुर की मृत्यु किसी महिला के हाथों होगी। अपने भाग्य से बचने के लिए उसने अपने राज्य की सभी कुँवारी कन्याओं को बंदी बना लिया था जिससे प्रजा बहुत दुखी थी।
इस त्रासदी का अंत करने के लिए कृष्ण अपनी शूरवीर पत्नी सत्यभामा संग नारकासुर से युद्ध करने के लिए गए। सत्यभामा ने नारकासुर से युद्ध किया और उसे मार दिया। कृष्ण ने तब सभी कन्याओं को बंदीगृह से मुक्त किया। उन कन्याओं ने समाज में अपमान के डर से कृष्ण को उनसे विवाह करने को कहा।
एक विशेष रथ यात्रा
शांति वार्ता में असफल रहने के उपरान्त कृष्ण हस्तिनापुर छोड़ने को तैयार हो रहे थे। कर्ण, कृष्ण को अपने रथ में शहर के बाहर तक छोड़ने साथ गए। तब कृष्ण ने कर्ण को बताया कि कैसे उन्हें माता कुंती ने प्रथम पुत्र के रूप में जन्मा था और कैसे पाण्डव उस के अपने भाई थे।
कृष्ण ने कर्ण को दुर्योधन से विमुख होने के लिए समझा कर मनाने का प्रयास किया किंतु कर्ण ने कहा कि वह दुर्योधन के एहसानों तले दबा है और उसे छोड़ नहीं सकता। तब कर्ण ने कृष्ण से यह वचन लिया कि वह उसकी यह वास्तविकता पाण्डवों को नहीं बतायेंगे।
शांति दूत, पाण्डवों का दूत
कृष्ण पाण्डवों की ओर से शांति दूत बन कर शांति प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गए। दुर्योधन ने श्रीकृष्ण के आसन के नीचे एक गुप्त जाल बनवाया था ताकि उनको बंदी बना सके। वह राज्य में पाण्डवों के हिस्से को भी हड़प कर युद्ध को टालना चाहता था।
परंतु कृष्ण ने उस जाल में फँसने की अपेक्षा अपना ब्रह्मांडीय स्वरूप, दुर्योधन सहित वहाँ उपस्थित सभासदों को दिखाया जिसे “विश्वारूपा दर्शन” कहा जाता है। इतना डरावना तथा ज्ञानरूपी स्वरूप देख कर भी, दुर्योधन पर इसका कोई असर नहीं हुआ क्योंकि वह सत्ता की लालसा में इतना अंधा हो चुका था कि वह श्री कृष्ण के ऐसे ब्रह्मांडीय स्वरूप द्वारा दिए गए संदेश को भी नहीं समझ पाया। उसने शांतिस्थापना के लिए सुझाए गए किसी भी उपाय को स्वीकार नहीं किया, जिससे युद्ध के रूप में अंतिम विकल्प का मार्ग प्रशस्त हुआ।
सच्चाई
इस घटना के उपरांत महात्मा विदुर, हस्तिनापुर के श्रेद्ध्य व वयोवृद्ध महामंत्री, जो राजा धृतराष्ट्र के सौतेले भाई भी थे, ने कृष्ण से पूछा कि जब उन्हें यह ज्ञात था कि युद्ध अवश्यंभावी है, तो उन्होंने शांति प्रस्ताव ला कर यह कष्ट क्यों उठाया। कृष्ण ने विदुर को कहा, “मैं अपने स्थान और अपने समय के विषय में नहीं सोच रहा, अपितु भविष्य की सोच रहा हूँ। आने वाली पीढ़ियाँ यह सोचेंगी कि मैंने युद्ध रोकने के लिए एक उँगली भी नहीं उठाई और विश्व पर एक महान विपत्ति आने दी। असफलता का भय प्रयास ही न करने का कोई कारण नहीं हो सकता।”
अपने वास्तविक रूप को प्रकट करना
दुविधा में पड़ा हुआ अर्जुन युद्ध में अपने सौतेले भाईयों तथा संबंधियों के विरुद्ध शस्त्र नहीं उठा पा रहा था। तब, वहीं, युद्धभूमि में ही, कृष्ण ने अर्जुन को भगवद् गीता का ज्ञान दिया। यह उपदेश देते हुए उन्होंने अर्जुन को अपने वास्तविक रूप, विराट, विश्वरूपा स्वरूप के दर्शन कराए।
इस अमर उपदे ने, मंत्रणा और दर्शन ने, तब से इस देश और समस्त दुनिया के लोगों के दिल और दिमाग में कृष्ण को देवता बना दिया है।
गांधारी का श्राप
युद्ध के उपरांत, गांधारी अपने 100 पुत्रों, कौरवों की मृत्यु के शोक में अभिभूत हो कर अति व्याकुल थी। तब उसने कृष्ण को श्राप दिया कि उसकी तरह कृष्ण भी 36 वर्ष के पश्चात् अपने जीवनकाल में ही अपने वंश का नाश होते हुए देखेंगे।
और वास्तव में, 36 वर्ष उपरांत जब श्री कृष्ण द्वारका छोड़ कर गए तो यादवों में गृहयुद्ध छिड़ गया और द्वारका नगरी समुद्र में समा गयी।
आसन्न विनाश से पहले, कृष्ण ने अपने लोगों को बुलाया और उन्हें बताया कि द्वारका नगरी पर ख़तरा है, इसलिए उन्हें दूसरे क्षेत्रों में चले जाना चाहिए। वे स्वयं दक्षिण की ओर, आज के सोमनाथ के निकट, प्रभास पाटन चले गए। यह वही स्थान था जहाँ जारा नाम के एक शिकारी ने कृष्ण की एड़ी के निशान को हिरण का मुख समझ कर उन पर जहरीला तीर चला दिया।
इस प्रकार कृष्ण, हिरण्या, कपिला और सरस्वती, इन तीनों नदियों के संगम तट पर देह त्याग कर स्वर्ग लोक के लिए प्रस्थान कर गए।
उधर अर्जुन ने जब कृष्ण के दुनिया छोड़ने और यदु वंश में होने वाली पीड़ादायक लड़ाई के बारे में सुना तो वह हस्तिनापुर से द्वारका की ओर निकल पड़े। उन्होंने कृष्ण की पत्नियों सहित द्वारका की अनेक महिलाओं को बचाया और उन्हें हस्तिनापुर ले आए। उन्होंने द्वारका छोड़ते ही उस तटीय नगर में सुनामी जैसी विशाल लहरें उठते हुए और द्वारका समुद्र में समाते हुए देखी। अर्जुन द्वारा यह सब कुछ ही दूरी से अपनी आँखों से देखा गया, और इसका वृत्तांत मौसल पर्व में कुछ इस प्रकार से दिया है:
“सागर निरंतर तट से टकरा रहा था,
लहरें सभी सीमाओं को तोड़ कर नगर में प्रवेश कर गई थी।
एक एक कर के, मैंने खूबसूरत इमारतों को समुद्र में डूबते हुए देखा।
समुद्र ने सारे नगर को ही अपने भीतर समा लिया था
चंद मिनटों में ही सब कुछ नाश हो गया।
अब समुद्र एक शांत झील के तरह बन गया था।
उस खूबसूरत शहर का कोई निशान बाकी नहीं बचा था,
बस एक स्मृति !”
(मौसल पर्व, महाभारत ग्रंथ के अंतिम अध्यायों में से एक है।)
जगन्नाथ पुरी मंदिर से संबंध
किदवंतियों के अनुसार, द्वारका से जो लोग पूर्व दिशा में गए, वे अपने साथ कृष्ण (शरीर/ पिंड) की अस्थियाँ ले कर आए थे जो जगन्नाथ पुरी मंदिर की मूर्ति में एक खाली कोष्ठ में रखी हुई हैं। स्थल पुराण, जो मंदिर की स्थानीय दन्तकथाएँ हैं, के अनुसार हर 12 वर्ष के पश्चात् “ब्रह्मपोली” नामक इस पोटली को निकाल कर एक नई मूर्ति में स्थानांतरित किया जाता है।
अस्थियों की इस पोटली को मंदिर के सबसे वयोवृद्ध पुजारी द्वारा ही हाथ लगाया जाता है और उनकी आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती है।
इस लेख की सामग्री @bharatgyan से ली गई है। लेख की अनुसंधान टीम का नेतृत्व पति-पत्नी की जोड़ी, डाक्टर डी के हरि व डाक्टर हेमा हरि ने किया, जिन्होंने दीवानों की तरह रुचि लेकर भारत की अनेक अनकही कहानियों को हमारे सामने लाया और उन्हें समकालीन परिपेक्ष में प्रस्तुत किया है। आप यहाँ क्लिक कर के भारतीय सभ्यता पर लिखी उनकी किसी भी पुस्तक को खरीद सकते हैं।
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