मैं चार महीने गर्भवती थी जब मैंने पहली बार भगवद्गीता पढ़ी थी। मैं हैरान थी कि मेरी सास मुझसे क्यों कह रही थी कि मैं वेद, रामायण, पुराण और भगवद गीता जैसे पवित्र ग्रंथों को पढ़ूं। पहले अध्याय के अंत तक, मुझे यह मालूम हो गया कि मैं सही समय पर सही चीज कर रही थी।
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर ने जीवन में कम से कम एक बार भगवद गीता पढ़ने की सलाह दी है। इससे आप जीवन के रहस्यों को गहराई से समझने में समर्थ होते हैं। भगवत गीता से सभी आयु वर्गों के लोग जुड़ सकते हैं, क्योंकि यह जीवन के अनेक पहलुओं के बारे में बहुत कुछ कहती है, जैसे मानव मूल्य, दर्शन, मनोविज्ञान, प्रेरणा, प्रबंधन, नेतृत्व, और संवाद कौशल आदि।
क्या गीता में बच्चों के पालन पोषण के बारे में कुछ कहा गया है?
यह लेख मातृत्व-पितृत्व के सम्बंध में गीता के तीन श्लोकों, उनके अनुवाद और माता-पिता को उनके बच्चों को सही दिशा में प्रेरित और मार्गदर्शन देने के लिए संदेश पर केंद्रित हैं।
भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते || 2.62||
अनुवाद
वह व्यक्ति जो इंद्रिय विषयों पर ध्यान देता है, उसे उसके प्रति आसक्ति विकसित होती है, जिससे इच्छा उत्पन्न होती है, और इच्छा (अपूर्ण) से क्रोध उत्पन्न होता है।
माता-पिता के लिए सीख
माता-पिता का अपने बच्चों से प्रेम करना स्वाभाविक है। लेकिन जब प्रेम आसक्ति का रूप लेता है, तो रिश्तों को संघर्ष का सामना करना पड़ता है।
एक माँ अपने शिशु के जन्म से पहले ही उसके प्रेम में रहती है। जब वह शिशु किशोर होता है तो अपने दोस्तों को माँ से अधिक महत्व देने लगता है | इससे माँ निरुत्साहित होकर उसे अपनी ओर खींचने की कोशिश करती है, जिससे रिश्ते में घुटन होता है। भगवद गीता में कहा गया है कि प्रकृति माता सभी से प्रेम करती है, लेकिन वह किसी से आसक्त नहीं है। इसी तरह, आप अपने बच्चों से प्रेम कर सकते हैं, लेकिन किसी भी आसक्ति के बिना। यह आपके रिश्तों को स्वस्थ रखेगा। अन्यथा, घर का माहौल अक्सर उत्तेजित हो सकता है।
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर कहते हैं कि ध्यान अपनी इच्छाओं को छोड़ने की कला है ।
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भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 6.5॥
अनुवाद
अपने प्रयासों के माध्यम से अपनी आत्मा को उन्नत करें, अपने आप को कभी निम्नतर न करें। क्योंकि मन आत्मा का मित्र तथा शत्रु भी हो सकता है।
माता-पिता के लिये सीख
अनुसंधान सिद्ध करता है कि किसी के कृत्यों का अनुकरण करना बच्चे की सीखने की क्षमता का एक तरीका है। बच्चे अपने जीवन के प्रारंभिक चरणों में, अपने माता-पिता तथा अपने करीबी रिश्तेदारों का अनुकरण करना शुरू करते हैं। माता-पिता का व्यवहार उनके बच्चों के व्यवहार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बच्चे हमेशा अपने माता-पिता को ध्यान से देखते हैं। वे माता-पिता की बातों और उनके व्यवहार से सीखते हैं। इसलिए, हमेशा सही बात कहें और अपने व्यवहार को सौम्य रखें।
यह केवल तभी हो सकता है जब आप अपने मन में अच्छे गुणों को अंगीकार करें और इसे अपना दोस्त बना लें, अन्यथा, आपका मन बिना सोचे-समझे बुरी आदतों में जा सकता है और आपका शत्रु बन सकता है। उदाहरण के लिए, अगर माता-पिता को झूठ बोलने की बुरी आदत है, तो बच्चे इसे उचित जान ऐसा ही कर सकते हैं। आपके बच्चे आपको देख रहे हैं, इसलिए बेहतर है कि आप अपने मन को एक दोस्त बना लें। ऐसा मित्रवत मन आपके बच्चों के लिये अच्छे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने में आपकी मदद करेगा, जिससे घर में खुशी बनी रहेगी। जब आप अपने मन को एक अच्छा दोस्त बनाते हैं, तो बच्चे भी उसी का पालन करेंगे।
दुनिया का सबसे सरल ध्यान कार्यक्रम, सहज समाधि ध्यान योग, आपके मस्तिष्क तरंगों को शांतिपूर्ण अल्फा-तरंग स्थिति में लाता है जो आपके तंत्रिका तंत्र को सुखद अनुभव प्रदान कराता है, शरीर और मन को गहरा आराम प्रदान करता है।
‘मेरा मन मेरे बस में नहीं!’ वाली मन: स्थिति से ‘मेरा मन स्पष्ट है और मेरे नियंत्रण में है’ की मन: स्थिति सहज समाधि ध्यान योग द्वारा सरलता से मिल जाती है।
– शगुन पंत, दिल्ली
भगवद गीता, अध्याय 16, श्लोक 1-3
श्रीभगवानुवाच |
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: |
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् || 1||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् |
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् || 2||
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत || 3||
अनुवाद
भगवान कृष्ण ने कहा: निर्भय, अंत:करण की शुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़, दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, यज्ञों का अनुष्ठान करना, स्वाध्याय, तपस्या तथा सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोध हीनता, त्याग, शांतिप्रिय, निंदा-चुगली न करना, सभी जीवों के प्रति करुणा भाव, लोभ न होना, सौम्य, बुरे कामों में लज्जा, व्यर्थ की चंचलता न होना, तेज , क्षमाशील, धैर्य, वाह्य शुद्धि, शत्रुता के भाव से मुक्ति और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होना, हे अर्जुन दैवी सम्पदा से संपन्न लोगों के ये गुण हैं।
माता-पिता के लिए शिक्षा
माता-पिता को इन मानवीय मूल्यों को अपने आध्यात्मिक यात्रा का हिस्सा बनाना चाहिए। ये गुण उनके खुद के बच्चों के चरित्र निर्माण में बहुत लाभकारी होते हैं। जब बच्चे इन गुणों को देखकर इनसे परिचित होते हैं, तो वे इन गुणों को सीखते हैं और अपने आप में इससे एकीकृत करते हैं।
निष्कर्ष
जिस प्रकार अर्जुन ने भगवान कृष्ण में एक मित्रतापूर्ण और पिता तुल्य साकार आदर्श पाया और उनकी शिक्षाओं को कार्यान्वित किया, आप भी इन श्लोकों की सूझ को बच्चों के साथ अच्छा संबंध बनाने के लिए अनुपालन में ला सकते हैं।
“गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर के सुझावों पर आधारित”
लेखक: प्रतिभा शर्मा
संदर्भ लिंक
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर द्वारा भगवद गीता पर ‘जब आपका मन आपका शत्रु बन जाता है‘, एक अंतर्दृष्टि।
संबंधित लिंक
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर द्वारा भगवद गीता पर गीता ज्ञान हिंदी में एक व्याख्यान है।
भगवद गीता की सिग्नेचर संस्करण – यह गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर द्वारा 14 भाषाओं में तैयार की गयी एक बोलती पुस्तक है जिसमें श्रीमद्भगवद्गीता के मूल पाठ , अनुवाद के साथ-साथ गुरुदेव द्वारा मार्गदर्शित ध्यान और भजन हैं।
प्रतिभा शर्मा एक शिक्षिका-लेखिका है। वह अव्यक्त भावों, भावनाओं और अनुभवों को शब्दों में प्रदान करने के बारे में उत्सुक रहती हैं। वह जीव विज्ञान में स्नातक और प्रबंध स्नातक हैं जो महसूस करती हैं कि पारस्परिक विचार-विमर्श और सीखने के लिए बच्चे और किशोर उसके पसंदीदा विषय हैं। UNICEF के लिए ‘जेंडरिज़म और बाल अधिकार’ पर रिपोर्ट लेखन ने उनकी महत्ता को बढ़ाया है।”