ॐ श्री कृष्ण: शरणम मम:
हे परमप्रिय कृष्ण, मेरा सब कुछ आपको समर्पित है प्रभु, मुझे अपनी शरण में ले लो।

कहा जाता है कि श्री कृष्ण का नाम लेने से ही जीवन से सारे दुःख और कष्ट मिट जाते हैं और व्यक्ति को शांति तथा परम् आनंद की प्राप्ति होती है। हिंदू दर्शनशास्त्र के अनुसार प्रत्येक देवी-देवता के साथ कुछ विशेष गुण जुड़े होते हैं। जब भी हम भगवान शिव के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में ध्यान में बैठे हुए भगवान शिव का शांत, सौम्य चेहरा, जिनके माथे पर अर्द्धचन्द्राकार शशि सुशोभित है, की छवि ही दिखाई देती है।

जब हम भगवान राम के विषय में सोचते हैं तो उनके विशेष गुणों, विनम्रता, कर्त्तव्यपरायणता तथा न्याय पराण्यता पर ही ध्यान जाता है; इसी प्रकार देवी दुर्गा की छवि देवी माँ की ही तरह दिखती है। किंतु, भगवान कृष्ण का व्यक्तित्व ऐसा है जिनके साथ अनेकों गुण जुड़े हैं। वे ऐसे देवता हैं जिन्होंने अपने शैशवकाल में ही पूतना जैसी राक्षसी का वध किया तथा अपनी माँ यशोदा को अपने मुँह में संपूर्ण ब्रह्मांड, समष्टि के दर्शन करा दिए। उनको एक नटखट, चंचल बालक के रूप में भी जाना जाता है, जो बचपन में माखन चुरा कर खाता था, जिसने विशाल नाग कालिया को हराया तथा गोपियों संग मस्ती और लीलाएँ करी और बाद में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में गीता के रूप में अर्जुन को परम ज्ञान दिया।

हमारे धर्मग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक जीव कुछ विशेष गुणों सहित, जिन्हें कलाएँ कहा गया है, इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। और अधिकतम यह संख्या 16 हो सकती है, जिनके होने पर वह जीव “संपूर्ण अवतार” हो जाता है। आइए, इस जन्माष्टमी पर हम भक्ति के देवता, भगवान श्रीकृष्ण की चंद कहानियों को पढ़ें।

कहानी 1: भक्तों के भक्त

श्रीमद् भागवत् में कृष्ण जन्म से जुड़ी अनेक कथाएँ हैं। ऐसी मान्यता है कि किसी देवता, किसी भगवान को उनके बालपन वाले रूप में दर्शन करना अपने आप में एक अत्यंत दुर्लभ घटना है, जिसके लिए देवता लोग भी युगों तक राह देखते हैं। एक लोकप्रिय कहानी के अनुसार, एक बार भगवान शिव भी योगी का रूप धारण कर गोकुल आए थे, ताकि भगवान कृष्ण को बाल रूप में देख सकें। इस पूरे दृष्टांत पर अनेक भजन गाए गए हैं। तथापि, इस घटना से जुड़ी हुई एक और कहानी भी है, जिसके विषय में चंद लोगों को ही जानकारी है।

श्रीमद् भागवत् के अनुसार यह देख कर कि भगवान शिव को भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप में दर्शन करने के लिए किन किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, ऋषि नारद ने भगवान शिव तथा भगवान कृष्ण, दोनों को आमने सामने ही पूछ लिया। नारद ऋषि यह जान कर गद-गद हो गए कि भगवान शिव व भगवान कृष्ण, दोनों ही एक दूसरे को “भगवान” कह कर संबोधित करते थे, और दोनों यह बताते थे कि वह दूसरे के भक्त हैं। उस समय ऋषि नारद ने उन दोनों से विनती की कि आखिर कौन किसका भक्त है, यह सच्चाई बताई जाए।

तब भगवान शिव ने प्रकट किया कि वे तो हमेशा से ही भगवान कृष्ण के भक्त रहे हैं और जिस जिस रूप में उन्होंने अवतार लिया है, शिव ने एक भक्त बन कर, सेवक के रूप में कृष्ण की सेवा की है। भगवान शिव ने यह भी सूचना दी कि वे तो भगवान कृष्ण के सबसे बड़े भक्त हैं। यह सुन कर भगवान कृष्ण मुस्कुराए और तुरंत प्रत्युत्तर दिया कि चूँकि भगवान शिव उनके भक्त हैं, इसलिए वे स्वत: ही उनके (शिव के) भक्त हो जाते हैं। यह वार्तालाप सुन कर नारद ऋषि की आँखों से आंसू बहने लगे और वह दोनों देवताओं के आगे नतमस्तक हो गए।

यह उन अनेक उदाहरणों में पहला अवसर था जब भगवान कृष्ण ने यह कहा है कि वे अपने भक्तों के सेवक हैं। यह उस लोकप्रिय मान्यता को भी उद्धृत करता है कि भले ही श्री कृष्ण समूचे ब्रह्मांड के लिए भगवान हों, परंतु वे सदैव अपने भक्तों की इच्छाओं का ही पालन करेंगे। जैसे भगवान शिव को “देवों के देव” माना जाता है, भगवान कृष्ण को “भक्तों के भक्त” के रूप में जाना जाता है।

कहानी 2: गोपियाँ और भोजन का व्यर्थ होना

भगवान कृष्ण के प्रति गोपियों की भक्ति का उल्लेख किए बिना उनके विषय में कथा, कहानियों का बखान करना कठिन होगा। कहा जाता है कि एक दिन सब गोपियों ने कृष्ण के लिए एक ठाठदार भोजन बनाने का निर्णय लिया। अपने घरों के नित्यप्रति कार्य पूरे करने के उपरान्त उन्होंने लगातार कई घंटे मेहनत कर के अपने प्रिय कृष्ण के लिए उत्तम भोजन तैयार किया। घंटों की मेहनत के बाद उन्होंने बनाए गए भोजन को सुशोभित बर्तनों में परोसा और कृष्ण के पिता नंद राय के घर चल कर गईं।

जब उन्होंने उस घर में प्रवेश किया तो देखा कि सभी अतिथि खाने की मेज के चारों ओर तथा कृष्ण उनके बीच में बैठे थे और माँ यशोदा उनके हाथ धुलवा रही थीं। जैसे ही अतिथियों ने गोपियों और उनके द्वारा लाए गए भोजन को देखा तो उन्हें ग्लानि महसूस होने लगी क्योंकि उन्होंने तो अभी अभी भोजन कर लिया था। सबने सोचा कि अपनी मेहनत को व्यर्थ होते देख कर गोपियों का तो दिल ही टूट जाएगा।

किंतु गोपियों की दृष्टि तो केवल भगवान कृष्ण पर थी और वे उनकी ओर ही देखे जा रहीं थीं। कुछ पलों के पश्चात् उन्होंने अपने बर्तन नीचे रख दिए और कलात्मक रूप से अपने हाथ हिलाते हुए नृत्य करने लगीं। नंद राय, माँ यशोदा, और अन्य सभी अतिथिगण यह देख कर चकित हो गए कि इतनी मेहनत से अपने बनाए हुए भोजन को व्यर्थ होते देख कर भी वो इतनी मस्त कैसे हो सकती थीं? एक मेहमान ने हिम्मत करके गोपियों से उनकी प्रसन्नता का कारण पूछ ही लिया।

गोपियों ने अपने उल्लासपूर्ण नृत्य को रोका और हंसते हुए कहा कि वे तो यह सोच रही थीं कि इतनी मेहनत से बनाए भोजन को ग्रहण करने के उपरांत कृष्ण के चेहरे पर जो तृप्ति का भाव आएगा, वह कितना दिव्य होगा! जब हम यहाँ पहुँची, तो हमारी आँखों ने कृष्ण के चेहरे को देखा और हमें उनके चेहरे पर तृप्ति का वही भाव दिखाई दिया। इस बात का तो कोई महत्त्व ही नहीं कि उन्होंने किसके हाथ का बना भोजन खाया, क्योंकि उनका तो जीवन ही कृष्ण की तृप्ति के लिए है और उनके तृप्त चेहरे को देखना मात्र ही उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी थी।

ऐसी अद्भुत कहानियाँ ही हैं जिनसे हम समझ सकते हैं कि वे देवता कितने तेजस्वी होंगे, जो अपने भक्तों में भक्ति की ऐसी गहरी भावना भर दें और कितनी महान वो गोपियाँ थीं जो अपने इष्ट के प्रति इतनी निष्ठा रखने में समर्थ थीं!

कहानी 3: भगवान कृष्ण; एक संपूर्ण गुरु

भगवान कृष्ण के चंद उद्गारों में से एक ऐसा भी है जब उन्होंने इस बात पर शोक प्रकट करते हुए कहा कि कैसे उनके प्रिय भक्त कई बार ऐसे ‘संकल्प’ ले लेंगे जिनका फलित होना असंभव होगा किंतु फिर भी उन्हें उनको पूरा करवाने के लिए आकाश-पाताल एक करना पड़ेगा, क्योंकि वे तो भक्तों के भक्त हैं। ऐसा एक संयोग तब बना जब युद्ध में अर्जुन पुत्र, अभिमन्यु का वध कर दिया गया। चक्रव्यूह के रूप में एक सामरिक चाल चल कर कौरवों के खेमे के सभी मुख्य योद्धाओं ने मिल अभिमन्यु का वध कर दिया था। इस कूट चाल की योजना एक सौ कौरवों की इकलौती बहन “दुशाला” के पति जयद्रथ द्वारा सुझाई गई थी।

अभिमन्यु की मृत्यु के उपरान्त अर्जुन ने अगले दिन का सूर्यास्त होने से पहले जयद्रथ का वध करने, और ऐसा न कर पाने की स्थिति में स्वयं का आत्मदाह करने की शपथ ले ली। उस रात कौरव बहुत प्रसन्न हो के जश्न मना रहे थे क्योंकि उन्हें विश्वास हो चला था कि उन्होंने युद्ध जीत लिया है। वे सब मिल कर अगले दिन जयद्रथ को अपनी सेना के बीच में छिपाने की योजना बनाने लगे ताकि अर्जुन उन तक पहुँच ही न सके। और यह भी कि यदि किसी प्रकार अर्जुन जयद्रथ को मारने में सफल हो भी जाते हैं तो उनके पास एक और सर्वश्रेष्ठ युक्ति थी। जयद्रथ के पिता एक संत पुरुष थे और उन्होंने अपने पुत्र को वरदान दिया था कि जो कोई भी जयद्रथ को मारेगा, उसके स्वयं के हज़ारों टुकड़े होकर जमीन पर बिखर जाएँगे। इसलिए कौरव आश्वस्त थे कि इधर अथवा उधर, दोनों दशाओं में अर्जुन की मृत्यु निश्चित थी।

इस प्रकार अगले दिन भी महाभारत का घमासान जारी रहा, जिसमें अर्जुन अपने तथा जयद्रथ के बीच में दीवार की तरह खड़े किए गए सैनिकों को मार कर जयद्रथ तक पहुँचने के लिए भरसक प्रयत्न कर रहे थे। उस दिन उन्होंने हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया किंतु फिर भी जयद्रथ तक नहीं पहुँच पाए। जब संध्या की बेला निकट आ रही थी तब भगवान श्रीकृष्ण ने, जो हमेशा सत्य के ही पक्षधर थे, अपने सुदर्शन चक्र का उपयोग कर सूर्य देव को कुछ देर के लिए छिपा दिया। उधर सूर्य को डूबते हुए देख कर कौरवों ने यह सोचा कि अब युद्ध विराम का समय हो गया है क्योंकि सूर्यास्त हो चुका है, उत्सव मनाना आरंभ कर दिया। उस समय जयद्रथ भी अपने ठिकाने से बाहर निकल आया और प्रसन्नचित्त हो कर अर्जुन के सामने खड़ा हो गया। 

उस समय भगवान कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र वापिस ले लिया, जिससे सूर्य देव फिर से प्रकट हो गए। यह जान कर कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ था और उस दिन का युद्ध विराम नहीं हुआ था, जयद्रथ भयभीत हो कर अपने शिविर की ओर वापिस भागने लगा। अर्जुन उसी समय अपना धनुष-बाण निकाल कर जयद्रथ को मारने ही वाला था कि भगवान श्रीकृष्ण ने उनका हाथ पकड़ लिया। उन्होंने अर्जुन को निर्देश दिया कि जयद्रथ का शीश इस प्रकार उड़ाओ कि वह कट कर उनके ही पिता की गोदी में जा कर गिरे।

अर्जुन ने निशाना लगा कर अपना तीर छोड़ दिया। उस तीर के वार से जयद्रथ का सिर धड़ से अलग हो गया। उस वार की शक्ति इतनी तीव्र थी कि उसका शीश उड़ कर युद्ध भूमि से मीलों दूर जा कर ठीक उसके ही पिता, वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा। वृद्धक्षत्र यह देख कर विचलित हो गया और उस हड़बड़ी में, उनकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप, जयद्रथ का शीश ज़मीन पर गिर गया। चूँकि जयद्रथ का शीश उसके पिता वृद्धक्षत्र ने ही भूमि पर गिराया था, उनके वरदान के अनुसार उन्हीं के शरीर के हज़ार टुकड़े हो कर बिखर गए।

इस कहानी के अनुसार भगवान कृष्ण ने अर्जुन के गुरु की भूमिका निभाई। अर्जुन ने जिस लक्ष्य को लेकर शपथ ली थी, वह कार्य लगभग असंभव ही था। इसमें समय सीमा तथा ज्ञान की बाधाओं के साथ साथ अर्जुन के शत्रु की रक्षा करने वाली एक शक्ति भी थी। किंतु, भगवान कृष्ण ने एक गुरु के रूप में अर्जुन को उत्तम सलाह दी जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने न केवल अर्जुन को निश्चित मृत्यु से बचाया, अपितु उनके द्वारा ली गई शपथ को भी पूर्ण करवाया। 

हमारे जीवन में भी यह गुरु का ज्ञान और आशीर्वाद ही होता है जो हमें उन सब असंभव प्रतीत होने वाली दुर्गम परिस्थितियों से पार पाने में सहायता करता है, जो भाग्य हमारे सामने चुनौती के रूप में लाता रहता है। सुख और दुःख जीवन रूपी सिक्के के दो पक्ष हैं जिनसे हम बच नहीं सकते। परंतु अपने गुरु अथवा अपने इष्ट, जिसको हम मानते हैं, की कृपा से हम मार्ग में आने वाली रुकावटों से अधिक प्रभावित हुए बिना अपना जीवन अधिक संतुलित ढंग से जी सकते हैं।

आप भगवान कृष्ण के जीवन से संबंधित ऐसी और अनसुनी कहानियाँ तथा गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर द्वारा नारद् भक्ति सूत्र की व्याख्या में उनके रहस्यों को विस्तार से समझाए गए सार को आर्ट ऑफ लिविंग एप्प पर सुन सकते हैं।

    Hold On!

    Don't leave without a smile

    Talk to our experts and learn more about Sudarshan Kriya

    Reverse lifestyle diseases | Reduce stress & anxiety | Raise the ‘prana’ (subtle life force) level to be happy | Boost immunity

    *
    *
    *
    *