रात्रि का समय वह समय है जो शांति और विश्राम देता है। जिस प्रकार हम नित्य रात्रि के समय विश्राम करते हैं, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्ष में दो बार ध्यान साधना के द्वारा गहरे विश्राम में जाने और स्वयं का पुनर्नवीकरण करने की परम्परा है। और यह हमारे पंचांग (चन्द्र कैलेंडर) के अनुसार प्रायः चैत्र मास (मार्च – अप्रैल) तथा अश्विन मास (सितंबर – अक्तूबर) में किया जाता है।

अयनकाल वह समय होता है जब चंद्रमा अपने चरम पर होता है, किंतु नवरात्रि (नौ रातें) के समय चन्द्रमा अधिकांशतः केंद्रित होता है। यह वह समय होता है जो ध्यान में गहरे उतरने तथा गहन विश्राम का अनुभव करने के लिए सर्वाधिक अनुकूल है (क्योंकि चंद्रमा की स्थिति का हमारे मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है)। नवरात्रि का मुख्य सार यही है। इसलिए, इस विश्राम की स्थिति को अनुभव करने के लिए देवी माँ की स्तुति में अनेक पूजाएँ, यज्ञ तथा ध्यान, जाप आदि अन्य आध्यात्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करने की परम्परा बनी हुई है।

नवरात्रि में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किए गए आध्यात्मिक अनुष्ठानों द्वारा प्राप्त लाभों के अनुभव को और गहरा बनाने के लिए यज्ञ करने की परंपरा है। मान्यता है कि जब हम कोई अनुष्ठान सामूहिक रूप में करते हैं तो उसके लाभ त्वरित मिलते हैं और कई गुणा बढ़ जाते हैं। अतः जब बहुत सारे लोग मिल कर ध्यान करते हैं सामूहिक चेतना अधिक शक्तिशाली हो कर व्यक्ति की चेतना का भी शीघ्र उत्थान कर देती है। इसलिए नवरात्रि का समय ऐसा होता है जब हर कोई एक साथ मिल कर यज्ञों में सम्मिलित होता है। 

यज्ञ क्या हैं?

यज्ञ परंपरा एक प्राचीन विज्ञान है जो हमारे वातावरण को, व्यक्ति को तथा चेतना के सूक्ष्म स्तर को परिशुद्ध करती है। यह नकारात्मक ऊर्जा को निष्प्रभावी करने तथा सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाने के लिए किए जाते हैं।

ईश्वर भी और कुछ नहीं, बस ऊर्जा का ही एक रूप है; एक परिशुद्ध तथा अत्यधिक जीवंत ऊर्जा। यज्ञ की तकनीक से इस शक्ति (जो उच्चतम शुद्धता वाली और जीवंत है) को पंचभूतों के उपयोग, मंत्रोच्चार, तथा यंत्रों (आकृतियों) द्वारा सूक्ष्म से स्थूल (भौतिक जगत) में उतारा जाता है। जब यह शुद्ध ऊर्जा पृथ्वी तत्व को स्पर्श करती है तो भौतिक वातावरण, सूक्ष्म वातावरण और यज्ञ में सम्मिलित होने वाले लोगों को भी परिशुद्ध कर देती है।

यज्ञ के तीन आयाम हैं

  • देव पूजा (आराधना): दिव्यता के विभिन्न गुणों को स्वीकार करना तथा उनका सत्कार करना।
  • संगतिकरण: सृष्टि के सभी भूतों (वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी, आकाश) को साथ ला कर क्रमागत उन्नति की प्रक्रिया को शीघ्रता प्रदान करना।
  • दान: जो कुछ भी हमें प्राप्त हुआ है उसे ईश्वर का आशीर्वाद मान कर दूसरों के साथ बाँटना।

यह तीनों मिल कर यज्ञ का रूप लेते हैं।

यज्ञ अनेक मनोरथ के लिए किए जाते हैं, जैसे कि स्वास्थ्य के लिए, आनंद के लिए, उन्नति के लिए, जीवन में विघ्नों को दूर करने के लिए, इत्यादि। किसी भी यज्ञ में विशिष्ट प्रभाव (उद्देश्य पूर्ति)  के लिए बहुत सी प्रक्रियाएँ किसी न किसी विशेष निर्दिष्ट शैली में क्रियान्वित की जाती हैं।

जब लोग समूह में एकत्रित हो कर भक्तिमय गीत गाते हैं, सामूहिक ध्यान करते हैं, या सामूहिक रूप से जाप करते हैं तो इसे भी यज्ञ कहा जाता है क्योंकि सामूहिक प्रार्थना सत्त्व का ऐसा व्यापक क्षेत्र बना देती है जिसका प्रभाव यज्ञों के प्रभाव जैसा ही होता है। और आज के समय में विश्व को इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है।

यज्ञों के पीछे का विज्ञान

यदि आप किसी ट्रांजिस्टर रेडियो को खोलोगे तो उसमें आपको एक धातु की चिप पर सर्किट की आकृति बनी मिलेगी। ठीक उसी प्रकार ब्रह्मांड में कुछ विशेष नैसर्गिक आकृतियाँ हैं जो ऊर्जा के संचार में सहायक होती हैं। पुरातन काल में लोग इस बात को जानते थे तथा उन्होंने इनको आरेखीय यन्त्र कहा।

इसको एक उदाहरण से समझते हैं। जब आप किसी कंप्यूटर के सम्मुख बैठ कर कोई रिकॉर्ड की हुई ध्वनि सुनते हो, तो आप देखते हो कि ध्वनि तरंगें स्क्रीन पर कुछ रेखा चित्र बना रही हैं, ऐसा होता है न? कंप्यूटर में ध्वनि की तरंगें कुछ रेखा चित्र बनाती हैं ताकि ऊर्जा का प्रवाह विशिष्ट रूप में हो। अब, प्राचीन समय में यही स्वरूप कुछ विशेष रेखा चित्रों के रूप में दिए गए हैं, जिनको यंत्र का नाम दिया गया।

अतः यन्त्र ऐसी ज्यामितीय आकृतियाँ हैं जो यज्ञ का एक महत्वपूर्ण भाग हैं। इनका उपयोग जब पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के साथ विशेष ध्वनि तरंगों और अनुष्ठानों के माध्यम से किया जाता है तो वे वातावरण में कुछ विशिष्ट ऊर्जाओं को सक्रिय करती हैं, जो सूक्ष्म जगत को नकारात्मक ऊर्जा से शुद्ध कर उसको सकारात्मक ऊर्जा से परिष्कृत कर देते हैं।

लोग प्रायः नकारात्मक विचारों और भावनाओं को वातावरण में उँडेलते ही रहते हैं, जिसको किसी स्थान पर और किसी प्रकार से गलाना और लुप्त करना आवश्यक है। इसके लिए हमारे पूर्वजों ने यज्ञों में इन यंत्रों, मंत्रों और तंत्रों का उपयोग किया, जो अब भी जारी है।