योग के पथ की नौ बाधाएं है- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्ति दर्शन, अलब्धभूमिकत्वा और अनावस्थितत्व।
इन बाधाओं के पांच लक्षण है, महृषि पतंजलि कहते है-
"सूत्र 31: दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥"
पहला लक्षण है दुःख और उदासी और दूसरा दौर्मनस्य, अर्थात मन में कड़वाहट, खट्टापन। ऐसे दौर्मनस्य में कुछ भी अच्छा नहीं लगता, किसी के साथ भी अच्छा नहीं लगता है। अपने स्वयं के लिए और दूसरों के लिए भी कड़वाहट बनी रहती है।
अंगमेजयत्व अर्थात तुम्हारा शरीर ही तुम्हारी नहीं सुनता है, जैसे एक शराबी नशे में बाएं जाना चाहता है पर उसका शरीर दाएं जाता है। सीधा चलना भी चाहे तब भी शरीर झूमता है, कुछ पकड़ना चाहे तो गिर पड़ता है। मन और शरीर के बीच ठीक ठीक तालमेल न होना अंगमेजयत्तव है, शरीर जीत जाता है। तुम पैदल घूमने जाना चाहते हो पर शरीर उठता ही नहीं, यह तीसरा लक्षण अंगमेजयत्व ही है।
श्वांस- प्रश्वांस, अर्थात असंतुलित श्वसन, जब श्वांस बहुत बिखरी हुई, असहज और तितर बितर होती है। यदि तुम अपनी श्वांस पर ध्यान दोगे तब तुम्हें पता चलेगा की जब मन प्रसन्न होता है, तब अंदर आने वाली श्वांस लम्बी और गहरी होती है। जब उत्साह अधिक होता है तब हम भीतर आने वाली श्वांस के लिए सजग होते है। परन्तु जब तुम दुखी होते हो तब बाहर जाने वाली श्वांस अधिक लम्बी होती है।
मन की अवस्था के साथ श्वांस भी पूरी तरह से असंतुलित हो जाती है। दुखी व्यक्ति भारी उच्छ्वास करता है, आहें भरता है पर प्रसन्न मन की स्थिति में तुम केवल श्वांस भरने के लिए सजग होते हो, श्वांस के बाहर जाने का तुम्हें मालूम भी नहीं पड़ता है। श्वांस प्रश्वांस में असंतुलन, योग की बाधाओं का पांचवा लक्षण है।
यह पांच लक्षण हैं जब योग की बाधाएं तुम्हारे ऊपर प्रबल होती हैं। यह कोई भी एक या उससे अधिक योग की बाधाओं के प्रत्यक्ष परिणाम होते हैं। दुःख अर्थात उदासीनता, दौर्मनस्य अर्थात कड़वाहट, अंगमेजयत्व अर्थात मन और शरीर में तालमेल की कमी, स्वांस और प्रश्वांस अर्थात असंतुलित श्वसन ही योग की बाधाओं (विक्षेपों) के परिणाम होते हैं।
योग के पथ की बाधाओं, विक्षेपों से मुक्ति का उपाय क्या है? महृषि पतंजलि कहते है-
सूत्र 32: तत्प्रतिषेधार्थम् एकतत्त्वाभ्यासः
विक्षेपों से मुक्ति का उपाय है एकाग्रता पूर्वक एक ही कार्य को करते रहना, चाहे जो भी हो। जब आप लगातार एक ही काम करते रहते है तब बोरियत और बैचेनी होती है। ऐसी बोरियत और बैचेनी तुम्हें एक शिखर पर ले जाती है जहाँ पर स्पष्टता आती है।
यही मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। हमारा मन उलझा रहता है क्योंकि यह द्वैत में फंसा हुआ है। मन के पास विकल्प है इसीलिए असमंजस है। मन तरह तरह के विकल्पों से तितर बितर रहता है। बंटा हुआ मन, दुखी ही रहता है। मन जब इकठ्ठा होता है तब प्रसन्नता बनी रहती है।
यदि तुम उन सभी क्षणों को याद करो जब तुम प्रसन्न होते हो, तब मन एकत्रित और पूर्ण होता है। आनंद के क्षणों में मन समग्र और प्रफुल्लित होता है इन्हीं क्षणों में जीवन का भी समग्रता से अनुभव कर सकते हैं। बिखरा हुआ मन दुःख और भय में रहता है।
इसीलिए यदि तुम बहुत कुछ, तरह तरह के अभ्यास कर रहे हो तब भी वह एकतत्त्व अभ्यास नहीं है। एकतत्त्व अभ्यास क्या है- एक ही सिद्धांत पर ध्यान रखना। यह एक सिद्धांत ईश्वर, पदार्थ, गुरु, आत्मा या कुछ और भी हो सकता है पर एकतत्त्व अभ्यास, एक का ही अभ्यास करो। एक ही के अभ्यास से इन सभी बाधाओं के पार जाना संभव है।
जब एकाग्रता रहती है तब ही मन में कुछ शांति संभव है। फिर तुम सब में एक ही तत्त्व को देखने लगो। एक ही आत्मा, सब में व्याप्त है, अथवा मेरे गुरु ही है जो सब जगह है, उनके अलावा कुछ और है ही नहीं, वही मेरे सब कुछ है। अथवा ईश्वर ही सर्वव्यापी है और मेरे लिए सब कुछ हैं। और मैं ही हर जगह हूँ।
जीवन में इस तरह एक ही सिद्धांत को पकड़ना और सब में उसी सिद्धांत को देखना ही युक्ति है। हमारा जीवन बाहर विविधता से चलता है, संसार में तरह तरह के लोग होते हैं।
फिर तुम सब में एक ही तत्त्व कैसे देख सकते हो? कुछ भी एक जैसा तो नहीं लगता है। पर पतंजलि कहते है की सब में एक ही को देखो, यह कैसे संभव है?
भिन्न भिन्न लोगों में एक तत्त्व को कैसे देख सकते हैं? यह किस तरह के लोक व्यवहार से संभव है? जानने के लिए पढ़िए अगला ज्ञान पत्र
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(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों केपरिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। )