मानवीय चेतना का बीज
मानव की चेतना एक बीज के समान है। जैसे एक बीज में एक वृक्ष की, शाखाओं की, फल-फूल और पत्तियों की, प्रजनन की संभावनाएं समाहित हैं, वैसे ही अपार संभावनाओं को लिए मानवीय मन होता है। एक बीज के प्रस्फुरण के लिए उवर्रक मिट्टी, उचित सूर्य का प्रकाश, जल और ठीक-ठीक परिस्थितियों की आवश्यकता होती है वैसे ही मानवीय चेतना के खिलने के लिए विशिष्ट प्रयोजन आवश्यक है। या तो एक बीज अपनी इन संभावनाओं को समेटे हुए वर्षों तक निष्क्रिय रह सकता है या फिर उचित परिस्थितियों में खिल सकता है, प्रस्फुरित हो सकता है। मानवीय चेतना के बीज का प्रस्फुरण होना ही विवेक है, ज्ञान है।
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विवेक और स्वातंत्र्य
विवेक के साथ ही स्वतंत्रता आती है। मानव के अलावा इस जगत की सारी प्रजातियां पूरी तरह से प्रकृति द्वारा ही नियंत्रित होती हैं। उन्हें विवेक की आवश्यकता नहीं होती, न ही उन्हें कोई स्वातंत्र्य प्राप्त होता है, इसलिए वे प्रकृति के बनाये नियमों को तोड़ते भी नहीं हैं।
केवल मानव की चेतना, मन को ही स्वातंत्र्य के साथ विवेक भी दिया गया है। विवेक की शक्ति और ज्ञान के द्वारा ही मानवीय मन का विकास संभव है, नहीं तो वह जैसे का तैसा रह सकता है। तुम सामान्यतः किसी पशु को आवश्यकता से बहुत ज्यादा खाते हुए नहीं पाओगे। प्रायः पशु समयानुसार ही भोजन और सम्भोग करते हैं। वो निश्चित समय पर खाते और विश्राम करते हैं। उनके पास कुछ ज्यादा विकल्प नहीं होते। किन्तु मनुष्यों को ही इच्छानुसार खाने पीने, जो चाहे वैसे करने का स्वातंत्र्य है। यह स्वतंत्रता विवेक, ज्ञान और कर्म फलों के ज्ञान के साथ दी गयी है। इसीलिए मनुष्य सही चुनाव कर ज्ञान के साथ जीवन जी सकते हैं। मनुष्य जीवन की विशेषता ही यही है कि यह विवेक, ज्ञान और बुद्धि से संचालित हो सकता है।
विवेक को कैसे बढ़ा सकते हैं? बीजरूपी चेतना का प्रस्फुरण कैसे हो सकता है? इस बीज से पौधे को कैसे उगा सकते हैं? एक बार पौधा उग जाए तो उसकी देखरेख और समय समय पर पानी देने की आवश्यकता होगी। एक बीज में संभावना तो है परन्तु यदि उसमें पानी न डाला जाए तो यह संभावना ही बनी रहती है, धरातल पर नहीं आती।
यहाँ पतंजलि कहते हैं -
योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः॥२८॥
योगाङ्गानुष्ठाना - योग के आठ अंगों के अभ्यास और उनके आचरण से अशुद्धिक्षये, अशुध्दियों का नाश होता है।ज्ञानदीप्तिराविवेक, ज्ञान और विवेक, प्रबल हो उठता है। बीज फूट पड़ता है और उसमें से नयी कोंपलों का प्रस्फुरण हो जाता है।
योग के ये आठ अंग क्या क्या हैं?
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि॥२९॥
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि - यह योग के अष्टांग हैं। आगे हम प्रत्येक अंग को गहराई से जानेंगे और यह भी समझेंगे की एक एक अंग के आचरण से क्या क्या प्रभाव होता है।
जैसे एक कुर्सी के चार पाये, पैर होते हैं वैसे ही योग के आठ अंग हैं। कुर्सी की तरह योग का भी हर एक अंग, योग के पूर्णरूप से जुड़ा होता है। जैसे एक पाया खींचने पर पूरी कुर्सी ही आ जाती है उसी तरह योग के एक अंग के आचरण से भी बाकी सब आ ही जाता है।
जब भी कोई शरीर विकसित हो रहा होता है तो उसका प्रत्येक अंग एक साथ बढ़ता है, ऐसा नहीं होता कि नाक पहले पूरी तरह से विकसित हो जाए और फिर आँख विकसित होना शुरू हो। शरीर के अंगों की ही तरह योग के आठों अंगों का विकास भी एक साथ ही होता है इसीलिए पतंजलि ने इन्हें योग के अंग कहा है। दुर्भाग्यवश लोग ऐसा समझते हैं कि यह आठ अंग न हो कर आठ स्तर हैं, जिसमें एक पूरा करने के बाद दूसरे पर जाना होता है, यह एक गलत धारणा है।
यम अष्टांग योग का पहला अंग है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पांच यम हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान, पांच नियम हैं। पांच यम और पांच नियमों की आगे के ज्ञान पत्रों में गुरुदेव विस्तृत चर्चा करेंगे। यम क्या हैं? जानने के लिए पढ़िए अगला ज्ञान पत्र।
<<पिछले पत्र में पढ़ें, तीन गुणों के पार।अगले पत्र में पढ़िए, सत्य एवं अहिंसा। >>
(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों केपरिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। )