शिक्षा की शक्ति को प्रमाणित करने के लिए रजाक रहमान और नमिता मलिक ने ग्रामीण त्रिपुरा तक यात्रा की और उन्होंने देखा कि शिक्षा इस सभ्यता के सबसे सशक्त न्याय के लिए संघर्ष करने, राज्य के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में अनुष्ठान कर रहा है। इसके लिए आर्ट ऑफ लिविंग के निशुल्क स्कूलों को धन्यवाद।
ऐसी दुनिया में जहाँ स्कूलों को उनके तरण-तालों की संख्या, उनके वातानुकूलित कमरों से आंका जाता है, वहाँ ऐसे स्कूल तो ‘स्कूल’ भी नहीं माने जाएँगे। लेकिन परिवेश के संदर्भ में रखा जाए तो केवल यही अगली पीढ़ी के लिए टिमटिमाती किरण है। यह कहानी है भारत के उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा के के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में आर्ट ऑफ लिविंग द्वारा संचालित निशुल्क स्कूलों की। यह स्कूल न केवल गरीबों को निःशुल्क शिक्षा, बल्कि आसपास के समुदायों के व्यापक सामाजिक बदलाव के केन्द्र बिन्दु का हिस्सा भी है।
“इस स्कूल ने इन समुदाय के बच्चों के जीवन में महत्वपूर्ण फर्क किया है। न केवल उनके योग्यताओं को समृद्ध किया बल्कि मूल्यों/ मान्यताओं के साथ बड़े भी हुए”। यह वक्तव्य है दक्षिणी त्रिपुरा के पश्चिमी कुफलॉग के एक स्थानीय नेता अमर सिंह जमातिया के जो कि ऐसे जो कि स्थानीय लोग जिनको इसका लाभ मिला, के मनोभावों को गुंजायमान करता है। सर्वत्र राज्य के 41 स्कूल में 1,855 बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है। यूनिफॉर्म, किताबें, बस्ते एवं मध्यान्ह भोजन सहित सभी सुविधाएँ पूर्णतया: निशुल्क दी जाती हैं।
बंदूक की नोक पर शिक्षा
यह स्कूल त्रिपुरा के दूर दराज क्षेत्रों में स्थित है। त्रिपुरा के यह राज्य ज्यादातर पिछडे रह गए है क्योंकि यह लोग 2000 से 2008 तक विद्रोह से पीड़ित थे। “कोई भी इन क्षेत्रों में जाने का जोखिम नहीं लेता था क्योंकि यहाँ अपहरण और हत्या की वारदात होती रहती थीं”। ऐसा कहती हैं स्वप्न पटारी, आर्ट ऑफ लिविंग की स्वयंसेविका जो सारे राज्य में इन स्कूलों का बाहरी संचालन देखती हैं।
यहाँ काम करने के लिए आर्ट ऑफ लिविंग की स्वयंसेवकों को भी अपनी जान खतरे में डालनी पड़ती है। देबब्राता बनिक, जो कि त्रिपुरा के स्कूल प्रोजेक्ट का समन्वय कार्य देखते हैं, एक भयानक घटना को याद करते हुए कहते हैं कि वे जब दक्षिण त्रिपुरा के मलसूमपारा में स्कूल खोलने के लिए कार्य कर रहे थे तब उन्हें स्कूल शुरू करने के लिए गाँव के एक शक्तिशाली व्यक्ति से अनुमति लेने को कहा गया। जब वे उनसे मिलने गए तब वे एक ए.के.47 राइफल बगल में लेकर बैठे थे। “तब मुझे एहसास हुआ कि वे टी.एन.एल.एफ. (टायबल नेशनल लिबरेशन फ्रंट) के नेता हैं जो कि उस क्षेत्र के सशस्त्र आंदोलन में संलग्न थे। आरंभिक संवाद के बाद, जिसने मुझे बेहद डरा दिया था, उन्होंने मुझे अनुमति दे दी, यह कहते हुए कि वे ऐसे किसी को क्षति नहीं पहुँचाएँगे जो गाँव का भला चाहता हो”।
स्वप्न देखने के लिए शिक्षित करना
स्कूल खोलने के लिए, आर्ट ऑफ लिविंग को बंदूक से ज्यादा, अभिभावकों में सजगता के अभाव से युद्ध जीतना पड़ा। स्कूल अनपढ, भूमिहीन मजदूर प्रधान क्षेत्रों में स्थित थे। इसलिए, अभिभावक बच्चों की शिक्षा को उतना महत्व नहीं देते थे। जब माता-पिता खेतों में जाते थे, बहुत सारे बच्चे, खेत में काम करने को मजबूर होते या फिर अपने से छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते। ऐसे में, बहुत सारे बच्चे कभी भी स्कूल नहीं जा पाए।
इसके अतिरिक्त, अभिभावकों के लिए स्थानीय स्कूलों की दशा निराशाजनक थी। “अन्य स्थानीय स्कूलों में अध्यापक नहीं आते थे। बच्चे वहाँ केवल मध्यान्ह में परोसे जाने वाले भोजन के लिए जाते थे। अतः हमें लगा, हमारे बच्चों को वहाँ भेजने का कोई मतलब नहीं”, कहते हैं कांती चिरन, एक भूमिहीन मजदूर एवं दो बच्चों के पिता।
इस पृष्ठभूमि में, अभिभावकों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए विश्वास दिलाया कोई आसान काम नहीं था। “आरंभ में हम माता-पिता को राजी करने घर घर गए, उन्हें अपने बच्चों को स्थानीय हाई स्कूल भेजने का कोई औचित्य नहीं लगा, जहाँ कुल 14 कक्षाओं के लिए केवल 6 शिक्षक थे’’, स्पष्ट करते हैं आर्ट ऑफ लिविंग के युवाचार्य बुद्ध कुमार, एक 30 वर्षीय युवाचार्य (युवा नेता) जो गुलारीबारी में स्कूल चलाने का दैनंदिन काम देखते हैं।
“अब यह स्कूल (श्री श्री सेवा मंदिर) सही मायनों में शिक्षा प्रदान कर रहा है और हम उनके उज्जवल भविष्य की आशा करते हैं”, अपने बेटे की पीठ थपथपाते हुए वे जोड़ते हैं, जो कि गुलारीबारी स्थित श्री श्री सेवा मंदिर के विद्यार्थी हैं। इस स्कूल ने उन्हें शिक्षा से इतना आत्मविश्वास दिया कि आज वे अपने बच्चे को चिकित्सक बनने का सपना देखते हैं।
दिलों पर जीत
’’हमारा सबसे बड़ा फायदा हुआ कि माता-पिता हमें सुनते है क्योंकि हमने इस क्षेत्र में स्कूलों के अतिरिक्त कार्य किया जैसे चिकित्सा शिविर, स्वास्थ्य शिविर जैसे अभियान चलाए’’ कहते है शामचरण देबवर्मा, गुलारीबारी के अन्य आर्ट ऑफ लिविंग के स्वयंसेवक। यहां के क्षेत्र के लोगों को इन पर इतना विश्वास है कि वे उन्हें स्थानीय चुनावों में लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते है।
‘’हमारे नव चेतना शिविर (पुनर्जीवन कैंप) जो कि स्कूल खुलने से पहले गांव वालों के लिए आयोजित की गई, ने मनोदशा बदलने में अहम भूमिका निभाई। इन शिविरों ने उन्हें यह एहसास कराया कि शिक्षा उनका जीवन बदल सकती है। धन्यवाद कि माता-पिता के बीच नव जागृति आई, हमारे स्कूलों में 80 प्रतिशत से भी ज्यादा उपस्थिति रही और ड्राप आउट करीब करीब शून्य रहा। कहते है देबब्राता बनिक। ‘’कई स्थानों पर हमने मां-पिता के मांगों के अनुसार स्कूल शुरू किए,’’ वे आगे कहते है। ‘’अभिभावक वास्तव में हमारा शिक्षक की तरह सम्मान करते है और यह बताता है कि वे अब उनके बच्चों के शिक्षा को महत्व देते है,’’ आगे कहते है उत्तम देबनाथ, जो कि पश्चिम कुफिलोन्ग (दक्षिणी त्रिपुरा) के स्कूल में पढ़ाती है। पश्चिम त्रिपुरा के गौरान्गटिल्ला में अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए माता-पिता इतना उत्साहित हो गए कि उन्होंने अपने बच्चों के स्कूल परिवहन के लिए 200 रुपए प्रति महीने के अपने खर्चे से एक गाड़ी नियुक्त की। आप देखेंगे कि कई स्कूलों में, दूर दराज के गांवों से 60 वर्षीय अपने नाती-पोतियों को लेने आते है।
यह सबसे अच्छा प्रोग्राम है।
श्रीकृष्ण
समान भागीदार
बड़ा दिलचस्प है कि इस मौन शिक्षा क्रान्ति में नारी जाति सबसे आगे है । कई स्कूलों में, स्कूल के बंद होने एवं उनके बच्चों को घर ले जाने के लिए इंतजार करती महिलाओं को कोई भी देख सकता है। बच्चे स्कूल में ही रहे यह सुनिश्चित करने कई बार तो वे पूरे दिन बैठे ही रहती है। लेकिन पुरुष भी पीछे नहीं है। कई जगहों पर, वे स्थान उपलब्ध करा रहे है, कई अन्य स्कूल की इमारतों को खुद बना रहे है एवं कई अन्य, शिक्षक प्रशिक्षण को प्रायोजित कर रहे है।
गौरान्गटिल्ला में स्थानीय क्लब ने पहले से ही निर्धारित समूची जमीन श्री श्री सेवा मंदिर को दान कर दी। और ईशानपुर (पश्चिम त्रिपुरा) में स्थानीय क्लब के भवन द्वारा ही स्कूल संचालित किया जाता है। ‘’यह भवन स्थानीय क्लब के लिए बनाई गई थी, लेकिन क्लब का कुछ भी उपभोग नहीं था। अत: हमने इसे आर्ट ऑफ लिविंग को स्कूल चलाने के लिए दे दिया, और आज ये स्कूल ने इस इलाके में विकास कर, बड़ा बदलाव किया है ‘’ शेयर करते है, निर्मल दास, सचिव न्यू स्टार क्लब। पश्चिम त्रिपुरा के खोवाई मंडल के अधीन शांति नगर में, स्थानीय सहायता से स्कूल के नये भवन का निर्माण किया गया।
इन अनपढ़ माता-पिताओं को यह दृष्टि कैसे मिली कि शिक्षा उनके गांव की तस्वीर बदल देगा और प्रेरित होकर यहां तक की उन्होंने अपने घर भी छोड़ दिए?’’ आर्ट ऑफ लिविंग के YLTP (युवा लीडरशिप प्रशिक्षण प्रोग्राम) में मैं गुरूजी से मिला (माननीय गुरूदेव श्री श्री रवि शंकर) जब वे 2008 में अरुणाचल प्रदेश में आए थे। ग्रामीण युवाओं के बैठक के संबोधन में, जहां मैं उपस्थित था, उन्होनें हमें हमारे क्षेत्रों में निशुल्क स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया। उनसे प्रेरित होकर, मैंने मेरे गांव में स्कूल खोलने का निश्चय किया। सबसे बड़ी समस्या थी उचित भवन ढूंढने की। अंतत:, मैंने अपना घर दान देने का निश्चय किया। आरंभ में हमारे पास बहुत कम बच्चे थे, लेकिन अब हमारे यहां 75 बच्चों से भी ज्यादा है,’’ कहते है मालसूमपारा गांव के सुनाई भक्तामल मालसूम।
एक अलग श्रेणी
हरेक माता-पिता उल्लासित है शिक्षा की उच्च गुणवत्ता के लिए जो त्रिपुरा के देहातों में आर्ट ऑफ लिविंग के स्कूल प्रदान कर रहे है। “हमारे पास वो सुविधाएं तो नहीं है जो हम शहरों के लिए सुनते है, लेकिन इन स्कूलों में शिक्षा का मापदंड इतना अच्छा है कि हमें लगता है हम किसी विकसित शहर में रह रहे है,” कहती है शांति नगर की सपना देब। इन महिला को इस स्कूल से गहरा मानसिक लगाव है। शादी के आठ वर्ष बाद भी वे निःसंतान थी। जब उन्होंने आर्ट ऑफ लिविंग का पार्ट-1 प्रेग्राम किया और इसके तुरंत बाद ही वे गर्भवती हो गई। आज उनकी पुत्री चार वर्ष की है और आर्ट ऑफ लिविंग स्कूल में जाती है।
एक गांव से दूसरे गांव, एक स्कूल से दूसरे, आप इस अनोखे बदलाव को साफ चिन्हित कर सकते है। “जो बच्चे आर्ट ऑफ लिविंग स्कूल में जाते है वो अंग्रेजी बोलना सीख जाते है’’ कहते है सतरंजन देबवर्मा जिनकी बेटी गुलारीबारी स्कूल के नर्सरी कक्षा में पढ़ती है। ‘‘ यहां के विद्यार्थी बहुत भिन्न है। वे घर में भी पढ़ाई के लिए उत्सुक रहते है क्योंकि शिक्षकों ने पढ़ाई को रोचक बना दिया है’’ चट से कहते है संजीव दास जिनका बेटा पश्चिम त्रिपुरा के बागाबासा आर्ट ऑफ लिविंग स्कूल के दूसरी कक्षा में पढ़ता है।
“आर्ट ऑफ लिविंग ने इस क्षेत्र में शिक्षा को गुणवत्ता दी है,” कहती है काजलरानी देबवर्मा, शांति नगर की पंचायत सदस्य। “इस स्कूल को धन्यवाद, गांव के सभी परिवारों को उत्कृष्ट शिक्षा की पहुंच मिल गई है और वो भी अंग्रेजी माध्यम में, जिसका गांव वालों के लिए प्रश्न ही नहीं उठता था। बच्चों का संपूर्ण विकास अद्भुत है,’’ सहमत होते हुए कहते है स्थानीय पंचायत के प्रधान रबिन्द्र दत्ता।
‘‘यहां पहली कक्षा के बच्चे भी राष्ट्रगान गा सकते है जबकि अन्य स्कूलों के चौथी कक्षा के भी बच्चे नहीं गा पाते,’’ कहते है पश्चिम कुफीलॉन्ग के अमर सिंह। कई स्थानीय शासकीय स्कूलों में भी सुधार आ गया है, आर्ट ऑफ लिविंग के निशुल्क स्कूलों को धन्यवाद। ‘‘आर्ट ऑफ लिविंग के सफल स्कूलों द्वारा स्वस्थ प्रतिस्पर्धा खड़ा करने से हमारे क्षेत्र के बहुत सारे आंगनवाडी केन्द्र फिर से सक्रिय हो गए है,’’ ऐसा मानते है समीर मजूमदार, दक्षिण त्रिपुरा, कालशी के स्थानीय नेता।
संपूर्ण पाठ
अच्छी शिक्षा से ज्यादा जो बात लोगों के दिलों को छू रही है वो है उन बच्चों का समग्र विकास जो आर्ट ऑफ लिविंग के मुफ्त स्कूलों में उपस्थित हो रहे है। ‘‘यहां अच्छी शिक्षा के अलावा, संपूर्ण उन्नति का ध्यान रखा जाता है। कला, योग और ध्यान भी सिखाया जाता है। सबसे बड़ी तरक्की उनके व्यवहार और अनुशासन में देखी जा सकती है। यह उल्लेखनीय है क्योंकि इन बच्चों के पास घरों में हितकर वातावरण नहीं है,’’ अपनी राय देते हुए कहते है सुदांग्शु दास, एक ग्रेजुएट जो गौरांगटिल्ला के स्कूल में पिछले 4 वर्षों से पढ़ा रहे है। वह प्रमाण देते है कि इसी व्यापक बदलाव के कारण ही ज्यादा घंटे और कम वेतन के बावजूद स्कूल में काम कर रहे है। वो ऐसे अकेले नहीं है जो ग्रामीण त्रिपुरा के बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए अतिरिक्त मील चलने के लिए प्रेरित हुए।
मालसूमपारा के प्रणब मेण्डी प्रतिदिन 20 कि.मी. साइकिल चलाते है। यहां पर तनाव रहित वातावरण में बच्चे ज्यादा अनावृत्त हो पा रहे है,” कहते है सुदांग्शु। और यही अनावृत्ति स्पष्ट है। “35 वर्ष एक अन्य स्थानीय स्कूल में शिक्षण के बाद मैं सेवानिवृत्त हुआ। लेकिन मैं बच्चों में इस तरह का बदलाव नहीं ला पाया जो मैं यहां साक्षात देख रहा हूं। शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है और विचार शैली, भिन्न। यहां बच्चे अपनी खुद की जिम्मेदारी लेना सीख रहे है,” ऐसा नोटिस करते है सुशील चन्द्र देब जो कि गौरान्गटिल्ला के प्रभारी है।
अतिरिक्त पाठ्यक्रम के प्रतिफल
ये स्कूल विभिन्न समुदाय और संस्कृति को मिश्रित करने का प्रोत्साहन देते है। ज्यादातर स्कूल के विद्यार्थी आदिवासी समुदायों का सम्मिश्रण है, बंगाली हिन्दू और बंगाली मुस्लिम। “पहले ये समुदाय अलग-थलग रहा करते थे। यह स्कूल विभिन्न समुदायों को जोड़ने का शानदार कार्य कर रहा है। उन्हें देखिए। आप सभी समुदायों से लोगों को पाएंगे,” महिलाओं की पंक्ति जो अपने अपने बच्चों को लेने आई है, की तरफ इशारा करते हुए कहते है सुब्राता आचार्या, दक्षिण त्रिपुरा के गार्जी के एक स्कूल के कमेटी सदस्य। बुर्के में ढकी हुई और हिन्दू महिलाएं हमदर्दी के साथ आपस में बातचीत करती हुई, उनके दावे की पुष्टि करते हुए अलग ही जान पडती है।
स्वास्थ्य और स्वच्छता एक अन्य क्षेत्र है जहां ग्रामीण त्रिपुरा के ये स्कूल क्रान्ति ला रहे है। नियमित रूप से न केवल बच्चों के बल्कि उनके माता-पिता के स्वास्थ्य के लिए भी, चिकित्सा जांच आयोजित किए जाते है। “हम लोग इस चिकित्सा कैंप से बहुत लाभान्वित हुए है,” सिद्ध करते है बिठी राय जिनकी बेटी कालशी के गार्जी स्कूल में पढ़ती है। कालशी में, स्कूल के द्वारा सभी बच्चों और सभी गांव वालों के लिए हेपेटाइटिस टीकाकरण आयोजित किया गया। “ये स्कूल इस क्षेत्र के स्वास्थ्य और स्वच्छता हेतु रैली स्थल बन गई है। इस एक्सपोज़र के लिए धन्यवाद, गांव वाले इस क्षेत्र के स्वास्थ्य और स्वच्छता अभियान के प्रति और भी ग्रहणशील हो रहे है,” कारण बताते हुए कहते है नन्दलाल भौमिक, इस क्षेत्र में कार्य करने वाले एक युवाचार्य।
इस कहानी का एक अच्छा आर्थिक पहलू यह है कि त्रिपुरा मे जनसाधारण का आंदोलन फैल रहा है। ये स्कूल केवल शिक्षा ही नहीं प्रदान कर रहे बल्कि माता-पिता के धन संचय में रूपांतरित हो रहे है। “अगर हम अपने बच्चे को किसी अच्छे स्कूल में भेजना चाहते है तो उसके लिए हमें कम से कम दिन के 50 रूपए आने जाने में लग जाते थे”। ये स्कूल, यह पैसा बचाने में हमारी मदद कर रहा है,” हिसाब लगाते है जयन्ता मजूमदार, छोटे-मोटे बीमा एजेंट जिनकी बिटिया कालशी के स्कूल में पढ़ रही है। ज्यादातर आर्ट ऑफ लिविंग स्कूल ऐसी जगह है जहां प्राइवेट स्कूल दूरी पर स्थित है, इसलिए स्कूल आना-जाना किफायती होता है।
समुदायों का सशक्तिकरण
केवल बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी सशक्त हो रहे है। “आर्ट ऑफ लिविंग वर्कशॉप करने के बाद आत्मविश्वास की ऐसी अनुभूति हुई कि मै अब गांव के स्कूल में पढ़ाने के समर्थ हो गया हूं”। वैसे मैंने माध्यमिक स्तर तक सरकारी स्कूल में पढ़ाई की है किन्तु अपने खुद से कुछ भी करने का आत्मविश्वास मुझमें नहीं था। लेकिन अब मैं स्कूल में पढ़ा रहा हूं,” बयान देती है रेशमा देबवर्मा, गुलारीबारी स्कूल की शिक्षिका। मालसूमपारा की शांति राय एक ऐसी अन्य है। उन्हें केवल 9वीं कक्षा तक पढ़ने का मौका मिला। “मेरे गांव के बच्चों को अवसरों के अभाव का कष्ट न भुगतना पडे, यह सुनिश्चित करने के लिए मैं दृढ़ थी। तो जब आर्ट ऑफ लिविंग ने स्कूल खोला तो मैंने इस स्कूल में पढ़ाने का निश्चय किया।”
ये महिलाएं शायद सुनीता विलियम्स न हो लेकिन उनकी उपलब्धियां कोई कम नहीं। उन्होंने स्थानीय सीमाओं को तोडा है और समाज में यहां तक पहुंची है जहां हाल ही तक शिक्षा का कोई स्थान नहीं था।
सत्य है कि शिक्षा जीवन बदल सकता है। जिस किसी ने भी कहा है कि शिक्षा इस सभ्यता का सबसे बडा लेवलर है, ने भी ऐसा ही किया होता, त्रिपुरा के निशुल्क आर्ट ऑफ लिविंग स्कूल में दौरा करने के बाद!
रजक रहमान द्वारा व्याख्यान, चित्र नमिता मलिक द्वारा