श्री आदि शंकराचार्य जी का जन्म एक गरीब मलयाली ब्राह्मण परिवार में सन 788 ई में, केरल के आधुनिक एर्नाकुल्लम जिले में कलादी नामक एक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु था, जो कि शास्त्रों में प्रवीण थे और माता का नाम आर्यम्बा था। शिवगुरु और आर्यम्बा के विवाह के कई वर्ष बाद तक उनके यहाँ कोई संतान नहीं हुई। तब उन्होंने भगवान शिव से एक पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की और उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर उन्हें वसंत ऋतु के शुभ अभिजीत महूर्त में एक बालक के रूप में मिला।

शंकर मुश्किल से सात वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया था। उनकी माता जी ने उनकी उचित शिक्षा का पूरा ध्यान रखा, जैसी कि एक तरुण ब्राह्मण से अपेक्षा की जाती थी। शंकर एक असामान्य बुद्धि के मालिक थे, बहुत छोटी उम्र से ही सन्यासी बनने की ठान ली थी। इससे उनकी माताजी बहुत दुखी हुईं, पर कुछ घटनाओं ने उनके निर्णय को त्वरित कर दिया। एक दिन शंकर और उनकी माँ नदी में नहाने गए। जब शंकर वहाँ नहा रहे थे, तभी अचानक एक घड़ियाल ने उनका पाँव पकड़ लिया और उनको नीचे पानी के अंदर घसीटने लगा। तब शंकर ने माँ को पुकारते हुए कहा कि वे उनको सन्यासी बनने की आज्ञा दे दें नहीं तो मगरमच्छ उनको खा जाएगा। तब माँ झटपट मान गयीं और उनके हाँ करते ही घड़ियाल ने शंकर का पाँव छोड़ दिया। तब शंकर केवल आठ वर्ष के थे।

Sri Adi Shankaracharya

अब शंकर अपने संन्यास का आरम्भ करने के लिए तैयार थे। उन्होंने अपनी माँ की जिम्मेदारी रिश्तेदारों को यह आश्वासन देते हुए सौंप दी कि वो उनकी मृत्यु शैय्या पर उनकी देखभाल अवश्य करेंगे और उनके अंतिम संस्कार भी अपने हाथों से करेंगे। फिर वह एक गुरु की तलाश में निकल पड़े। शंकर हिमालय पर्वतों के बीच बद्रीनाथ के पास एक आश्रम में आचार्य गोविन्दपाद से मिले, जो कि उनके भावी गुरु थे। जब गोविन्द ने शंकर से पूछा कि वह कौन हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया कि न तो वो अग्नि, न वायु, न पृथ्वी और न ही पानी हैं, बल्कि हर नाम और हर रूप के अंदर की अमर आत्मा हैं। बाद में उन्होंने अपना पता बताया। स्वामी गोविन्दपाद ने, उस युवा आकांक्षी से प्रसन्न होकर उनको दीक्षा देकर सन्यासी बना दिया। शंकर ने अद्वैत का दर्शन शास्त्र सीखा और बाद में इस ज्ञान का खूब प्रचार प्रसार किया। इसके बाद वो काशी अर्थात्‌ वाराणसी चले गए, जहाँ पर उन्होंने भगवद गीता, ब्रह्म सूत्र और उपनिषदों के ऊपर टिप्पणियाँ लिखीं।

जब शंकर काशी में वास कर रहे थे, तो कहा जाता है कि उनका सामना एक चांडाल (जाति से निकाला हुआ व्यक्ति) से हुआ। हुआ ऐसा कि एक दिन जब शंकर अपने शिष्यों के साथ एक संकरी गली से निकल रहे थे, तो अचानक उन्होंने एक चांडाल को अपने सामने पाया। उन दिनों के प्रचलन के हिसाब से एक चांडाल का ब्राह्मण से सामना होने पर, चांडाल को एक किनारे होकर ब्राह्मण को रास्ता देना होता था, ताकि ब्राह्मण उसकी बुरी छाया से दूषित न हो जाए। शंकर ने चांडाल को एक ओर सरक जाने को कहा। तभी उनको अचंभित करते हुए उस व्यक्ति ने उनको डांटते हुए कहा, “अरे भले ब्राह्मण, तुम होते कौन हो मुझे किनारे हटने को कहने वाले? यह तुम्हारा बलवान शरीर जो भोजन से बना हुआ है, अपने आप हिल नहीं सकता, तो शुद्ध अनंत चैतन्य जिसका मैं बना हुआ हूँ, भी तुम्हारे कहने से हिल नहीं सकता। तुम किसको रास्ता साफ करने के लिए कह रहे हो और किसके लिए?” शंकर को अपनी भूल का अहसास हुआ और वो चंडाल के सामने दंडवत हो गए। कहा जाता है कि असल में भगवान शिव चांडाल का रूप धारण करके आए थे, जिनको शंकर ने बाद में पहचान लिया। उनका विजयी देशाटन पूर्ण होने के बाद, अंततः शंकर को ‘सर्वजन पीठ’ का नेतृत्व सौंप दिया गया। शंकर ने ज्ञान के प्राधिकारियों के आगे अपने तर्क रखे और अपने विचारों और खंडनों से उन्होंने प्राधिकारियों को आसानी से पराजित कर दिया।

Adi Shankracharya doing Yagya

अपनी यात्रा के दौरान शंकर महिष्मति गए, जहाँ उनका सामना महिष्मति के दरबार के मुख्य पंडित मंडन मिश्र से हुआ। मंडन मिश्र सन्यासियों से सख्त घृणा करते थे। शंकर ने मंडन को एक वाद विवाद की चुनौती दी, जिसमें कि मंडन की विद्वतापूर्ण पत्नी भारती, निर्णायक बनीं। यह पूर्व तय कर लिया गया था कि अगर शंकर पराजित होंगे, तो विवाह करके एक गृहस्थ का जीवन अपना लेंगे और अगर मंडन पराजित होते हैं, तो वह सन्यासी का रूप अपना लेंगे। उनके बीच में वाद विवाद बहुत दिनों तक चलता रहा और आखिर में शंकर विजयी घोषित किए गए। कहा जाता है कि वास्तव में मंडन की पत्नी भारती विद्या की देवी सरस्वती का अवतार थीं। मंडन मिश्र जैसा की पूर्वतः तय हुआ था, शंकर से दीक्षा प्राप्त करके सन्यासी हो गए और उनका नाम सुरेश्वर रखा गया। इस प्रकार शंकर ने विभिन्न समुदायों के ऊपर विजय प्राप्त कर अपने अद्वैत दर्शनशास्त्र को स्थापित किया। जब शंकर को अपनी माँ के अस्वस्थ होने की सूचना मिली, तो वे वचनानुसार तुरंत अपनी माँ से मिलने कलादी चले गए। उन्होंने माँ को सांत्वना दी और आश्वासन दिया कि उनको मुक्ति प्राप्त होगी। ऐसा कहा जाता है कि शंकर ने अपनी माँ को अद्वैतदर्शन सिखाने की कोशिश की पर सफल नहीं हुए। तब उन्होंने शिव और विष्णु के भजनों का जाप करना शुरू किया और अपनी माँ की निर्भय होकर मौत का सामना करने में मदद की। जब शंकर ने अपनी माँ की अंत्येष्टि क्रिया करनी चाही, तो ब्राह्मण समाज ने उसका विरोध किया क्योंकि प्रचलन के अनुसार एक व्यक्ति के सन्यासी बन जाने के पश्चात उसके सभी पारिवारिक सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। किसी की परवाह न करते हुए शंकर ने माँ की अंतिम क्रिया अपने आप करने की ठानी। शरीर को कई भागों में विभाजित करके वे उसको घर के पिछवाड़े में ले गए। जब ब्राह्मणों ने उनको अग्नि देने से मना कर दिया, तो शंकर ने अपनी योग शक्ति से अग्नि उत्पन्न करके अपनी माँ का दाह संस्कार किया।

शंकर ने भारत के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की – उत्तर में जोशी मठ, पूरब में पुरी, पश्चिम में द्वारका और दक्षिण में श्रृंगेरी।

उन्होंने अपने चार शिष्यों त्रोटकाचार्य, पदमपद, हस्तमलाका और सुरेश्वराचार्य को क्रमशः इन चार मठों का कार्यभारी बना दिया। हिमालय पर्वतों के बीच जोशी मठ और बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण करने के बाद शंकर हिमालय पर्वतों की ऊँचाइयों की तरफ प्रस्थान कर गए और वहाँ उन्होंने 32वें वर्ष में अपनी देह त्याग दी।

उनके लेखन सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हैं। विवेक चूड़ामणि, आत्मबोध, अपरोक्षानुभूति, आनंद लहरी और उपदेश साहस्री उनके मुख्य लेखनों में से हैं। इसके अलावा उन्होंने कई गहरे अर्थ वाले भजनों की भी रचना की। श्री शंकराचार्य के शिक्षण का सारांश निम्न शब्दों में किया जा सकता है:

“ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:”

अर्थात्‌

“ब्रम्ह ही सत्य है, यह जगत एक मिथ्या है।

जीव और ब्राह्मण एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।”

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