भगवान गणेश कौन हैं?

इस सृष्टि का अंतिम सत्य यह है कि यह अणुओं का, गणों का, ऊर्जा बिंदुओं का समूह मात्र है। “गण” शब्द का अर्थ ही है ‘समूह’ और किसी भी समूह का किसी स्वामी के बिना अस्तित्व रह नहीं सकता। जिस प्रकार मधुमक्खियों में रानी के होने से ही मधुकोष का निर्माण सम्भव है, ठीक उसी प्रकार से इस संसार की विविधताएँ ही अपने आप में गणेश की उपस्थिति का प्रमाण हैं। हमारा शरीर भी एक ‘गण’ है। यह मांस, रक्त तथा हड्डियों (अस्थि मज्जा) के अणुओं से बना एक समूह ही तो है। इसलिए ‘गणों’ के स्वामी को “गणेश” कहा गया है।

गणेश की व्याख्या “अजं निर्विकल्पं निराकारमेकं” के रूप में की गई है। आदि शंकराचार्य जी ने गणेश जी की स्तुति कई सुंदर तरीकों से की है। उन्होंने कहा है, “अजं निर्विकल्पं निराकारमेकं”। इसका अर्थ है गणेश जी का कभी जन्म ही नहीं हुआ। वे अजं अर्थात् अजन्मे हैं, वे निराकार हैं अर्थात् जिसका कोई आकार नहीं है तथा वे निर्विकल्प अर्थात् निर्गुण हैं। इसलिए आदि शंकराचार्य कह रहे हैं, “हे भगवान गणेश जी! आप शाश्वत्, निराकार भगवत्ता हो, जो हर जगह व्याप्त है।”

गणेश जी को “अचिंत्य”, “अव्यक्त” और “अनंत” कहा गया है। अर्थात् वह विचारों से परे, अभिव्यक्ति से परे तथा शाश्वत् हैं। इसलिए उनके जैसा कोई सुंदर नहीं है और वह सर्वव्यापी हैं।

गणपति अथर्वशीशं में भगवान गणेश की स्तुति अति सुंदर स्त्रोत्र द्वारा की गई है।:

आप ही भगवान इन्द्र हो, भगवान ब्रह्मा हो, भगवान विष्णु हो, और भगवान शिव हो।
प्रत्येक रूप में आप ही निवास करते हो।
आप ही मेरे नीचे, पीछे, ऊपर, निकट, और चारों ओर हो।

सब कुछ आप पर ही निर्भर है।
आप ही दाता हो; आप ही सब सम्भाले हुए हो।
आप ही गुणातीत हो।
आप तक पहुँचने का इकलौता मार्ग ज्ञान का ही है।

समाधि में लीन संत पुरुषों में आप ही आकाश तत्त्व के रूप में हो।
आप ही सब गणों के अधिपति हो।
आप से ही यह सृष्टि है।
आप ही बीज हो; आप ही ज्ञान स्वरूपी हो।
आप ही देवों के देव हो। सब गुणों के आदि और अंत भी आप ही हो।
आप ही आनंद हो।
जो कोई भी आनंद की अनुभूति पाता है, उसका कारण भी आप ही हो।
आप ही सब दैवीय गुणों के अधिपति हो।
इस जगत में कौन सा स्थान ऐसा है, जहाँ आप नहीं हो!
प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से, आपकी पूजा करता ही है।
जिस किसी के भी मन में भक्ति का भाव उठता है, वह आपके प्रति ही होता है।

उद्गम

गणेश, अथवा ईश्वर की उत्पत्ति उस अव्यक्त भावातीत चेतना, उस परम आत्मा से हुई जिसे हम शिव कहते हैं। जिस प्रकार से जब अणुओं का समूह आपस में जुड़ता है तो पदार्थ बनता है, उसी प्रकार से मानवीय चेतना के विभिन्न आयामों में खंडित रूप जब आपस में जुड़ते हैं तो दिव्यता सहज ही साकार हो उठती है; और यही शिव से गणेश की उत्पत्ति है।

पुराणों में अनेक आश्चर्यजनक एवं अविश्वसनीय दृष्टांतों का वर्णन किया गया है। परंतु उनका अर्थ किसी नर्सरी कक्षा की कविता की तरह नही समझा जाना चाहिए। उनकी भाषा जटिल है जिसमें अत्यधिक गहराई तथा अर्थ छिपे हैं। हमें इन कहानियों को अति परिशुद्ध मन तथा निर्मल हृदय  से समझना चाहिए।

इसी प्रकार से गणेश जन्म की कहानी भी अदृष्ट गहराई तथा अर्थ से भरी है। गणेश का जन्म माता पार्वती के शरीर से निकले मैल से हुई थी। एक बार भगवान शिव और माता पार्वती अति उत्साह में लीन हो कर उत्सव मना रहे थे। इस प्रयोजन में पार्वती के शरीर पर कुछ मैल जम गई। यह मैल का संग्रहण दर्शाता है कि उत्सव मनाते हुए हमारे भीतर राजसिक ऊर्जा बढ़ सकती है और हम उत्तेजना में अपने केंद्र से विमुख हो जाते हैं।

कहानी में आगे बताया गया है कि माता पार्वती ने अपने शरीर से उस मैल को (जो सही अर्थ में हमारे अज्ञान का रूप है) हटा कर उसका एक गुड्डा बनाया। फिर उन्होंने उसमें प्राण फूंके और उस गुड्डे को द्वारपाल के रूप में खड़ा करके स्नान करने अंदर चली गईं। 

जब शिव (जो स्वयं उच्चतम भोलेपन, शांति तथा ज्ञान के प्रतीक हैं), कैलाश पर्वत पर वापिस आए तो वह बालक उन्हें पहचान नहीं पाया, इसलिए उसने शिव को उनका मार्ग रोक कर अंदर जाने से मना करने लगा। यह इस बात का महत्त्व समझाता है कि अज्ञानता (मैल) में हम ज्ञान अथवा भोलेपन को नहीं पहचान सकते; तथापि, सत्यता को अज्ञानता द्वारा रोका नहीं जा सकता, इसलिए शिव उस बालक का सिर, अज्ञानता का शीश, काट कर अंदर प्रवेश कर गए।

किंतु जब पार्वती को ज्ञात हुआ कि यह सब हुआ है, उन्होंने भगवान शिव को प्रार्थना करी कि वह बालक तो उनका पुत्र था इसलिए शिव को उसे बचाना होगा। तब भगवान शिव ने अपने सेवकों को किसी ऐसे जीव को ढूँढ कर, जिसका सिर उत्तर दिशा की ओर हो, जिसका ऊर्जा प्रवाह ऊर्जा के प्राकृतिक प्रवाह संग सामंजस्य में हो, उसका सिर लाने को भेजा। सेवकों ने बहुत दूर तक जा कर प्रयास किया किंतु वे शिव द्वारा बताई गई उस वांछित अवस्था में केवल एक हाथी को ही ढूँढ पाए। अतः वे उस हाथी का सिर काट कर ले आए, और इस प्रकार गणेश की उत्पत्ति हुई। इस दृष्टांत का  महान अर्थ है।

हाथी ही क्यों?

अब प्रश्न उठता है कि यह एक चेतना और एक ही सर्वोच्च सत्ता को एक हाथी के रूप में ही क्यों दर्शाया गया है? वास्तव में हाथी में कुछ अद्भुत गुण होते हैं, जैसे कि निर्भयता तथा उसकी राजसी चाल। वह शान से अपने मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को रौंदते हुए आगे बढ़ता जाता है।

हाथी अधिकार, धैर्य, शक्ति और साहस का भी प्रतीक है। तो, दैवीय गुणों के प्रतीक के रूप में, भगवान गणेश को एक हाथी के रूप में चित्रित किया गया है। और जब हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं, तो हम इन सभी गुणों को अपनी चेतना में आत्मसात करने में सक्षम होते हैं।

उसकी लंबी सूंड दर्शाती है कि सच्चा ब्रह्मज्ञान वह है जिसमें ज्ञान तथा कर्म के रूप में उसका कार्यान्वयन, दोनों में समरसता हो। गणेश जी का एक दाँत है जो इस बात का प्रतीक है कि “चेतना”  एक ही है।

विज्ञान ने खोज की है कि मानव जाति के केवल एक डीएनए (DNA) तंतु में भी इस पृथ्वी पर रहने वाली प्रत्येक प्रजाति के डीएनए (DNA) के अंश पाए जा सकते हैं। इसलिए हमारे भीतर प्रत्येक जानवर के गुण भी समाए हैं; वास्तव में इस बात का ज्ञान हमें आदि काल से ही है।

हाथी के मुख्य गुण बुद्धिमानी और सहजता हैं। मार्ग में बाधा पड़ने पर हाथी न तो कभी अपना रास्ता बदलते हैं और न ही वहाँ ठहर जाते हैं; वे तो बस उस बाधा को हटाते हैं और सीधे आगे बढ़ते चले जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि उनके मार्ग में कोई पेड़ हैं तो वह उन पेड़ों को उखाड़ कर आगे बढ़ते हैं।

हाथी की सूंड

अतः जब हम भगवान गणेश जी की आराधना करते हैं तो हमारे भीतर भी हाथी जैसे यह गुण जागृत होने लगते हैं और हम उन्हें अपनाने लगते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि आप जिस किसी पर भी अपना ध्यान केंद्रित करते हो, वैसे ही गुणों को आप ग्रहण करने लगते हो। इसलिए यदि आप गणेश जी पर ध्यान केंद्रित करते हो, जिनका सिर हाथी का है, आप में हाथी जैसे गुण ही विकसित होने लगेंगे। आप सब बाधाओं को पार कर पाओगे। 

हाथी में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं। इसका सिर बहुत बड़ा होता है, जो ज्ञान और बुद्धिमता को दर्शाता है। इसके कान भी बड़े बड़े होते हैं जो पंखे के समान हिलते हैं, और आँखें छोटी होती है जो इस बात की सूचक हैं कि जो कुछ भी आप सुनते समझते हो, उसका अनुसरण करना केवल रूप-रंग पर ध्यान देने और उसे महत्व देने की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमता का काम है। इसलिए जो कुछ भी हम देखते हैं और जो कुछ भी सुनते हैं, उनको आपस में  सहसम्बद्ध कर के अवश्य देखना चाहिए।

इसके अतिरिक्त हाथी अपनी सूंड का उपयोग दो कार्यों के लिए करता है – सूंड से वह सूंघता भी है और फिर उसी के अनुसार उस पर कार्य करता है। इसी प्रकार से, हम ज्ञान में भी पहले सूंघते हैं और तत्पश्चात् उस पर कार्य करते हैं। सूंड ज्ञान शक्ति तथा कर्म शक्ति के बीच आदर्श संतुलन को दर्शाता है।

धुएँ को सूँघने अथवा लोकप्रिय लोकोक्ति “दाल में कुछ काला है”, जैसा लेशमात्र भी आभास होने पर एक बुद्धिमान व्यक्ति तुरंत कुछ कार्रवाई करेगा। यह इस बात को दर्शाता है कि जरा सा भी कुछ आभास होने पर कार्रवाई करना एक बुद्धिमानीपूर्ण कार्य है।

हाथी के दाँत

हाथी के एक वह दाँत होते हैं जो हमें बाहर से दिखाई देते हैं, जबकि उसके पास भोजन चबाने के लिए अलग से भी दाँत होते हैं जो दिखाई नही पड़ते क्योंकि वे उसके मुँह के अंदर होते हैं। ऐसे ही गणेश जी का भी एक बाह्य दाँत होता है जिसका भाव है कि एक ही लक्ष्य पर पैनी दृष्टि रखनी चाहिए।

कमल पुष्प पर विराजित हाथी और मूसा

गणेश जी को अधिकतर हम कमल पुष्प पर विराजमान रूप में देखते हैं। अब सोचो, एक कोमल सा पुष्प हाथी जैसे विशालकाय जीव को सम्भाले हुए! कुछ अजीब है न? यह वास्तव में यह दर्शाता है कि गणेश जी अति संवेदनशील हैं। साथ ही, गणेश जी सदा मूसे की सवारी करते हुए पाए जाते हैं। एक हाथी मूसे की सवारी करते हुए – यह तो यात्रा के सभी कल्पनीय साधनों में सबसे अप्रत्याशित साधन है! तथापि, इसका अर्थ अत्यंत गहरा है; मूसे (चूहे) का काम है कुतरना, अर्थात् बन्धन की बेड़ियों को काटना।

चूहा, जो धीरे धीरे वस्तुओं को कुतर डालता है, एक मंत्र का पर्यायी है जो अज्ञानता की गहरी से गहरी परतों को कुरेद कर बाहर निकाल सकता है और एक हाथी को भी ढ़ो सकता है। घोर अंधकार में भी, जहाँ कुछ भी दिखाई न दे रहा हो,  मार्ग दिखाने के लिए प्रकाश की एक किरण मात्र ही पर्याप्त होती है, वही हमारी अज्ञानता को दूर कर देती है। इसके लिए बहुत कुछ की आवश्यकता नही है, बस यही एक थोड़ी सी स्थायी सजगता ही पर्याप्त है।

मोदक परमानंद का प्रतीक है

गणेश जी के एक हाथ में मोदक (लड्डू) उस ‘परमानंद’ की प्राप्ति को इंगित करता है। साथ ही उनका दूसरा हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा हुआ, उन भक्तों को आशीर्वाद देता है जिन्हें गणेश जी पर अटूट विश्वास है तथा जिन्होंने उनको समर्पण कर दिया है। इस प्रकार, कुछ अन्य देवी देवताओं की भाँति गणेश जी हाथ में पुस्तकें नही अपितु मोदक (लड्डू) रखते हैं जो परमानंद को दर्शाता है।

ज्ञान का ध्येय आनंद प्राप्ति होना चाहिए। सच्चा ज्ञान ही आपको सहज, सुगम और बोझ रहित बनाता है। यह उस तरह से बोझिल नहीं है जैसे जब हम कोई ज्ञान भरा प्रवचन सुन कर उसमें उलझ कर रह जाते हैं। ज्ञान का उद्देश्य तो स्वतंत्रता लाना होना चाहिए। आपको आनंद की अनुभूति होनी चाहिए। मोदक यही कुछ दर्शाता है।

यह आशा रखने की अपेक्षा कि जीवन में कोई बाधाएँ न हों, हमें स्वीकारना चाहिए कि सब कुछ जीवन का ही अंग है और हमें भूतकाल की घटनाओं में उलझने अथवा भविष्य के प्रति भयभीत होने के स्थान पर आगे बढ़ते रहना चाहिए। हर एक पल को उत्सव की भाँति मनाते हुए जीवन की  समग्रता को स्वीकार करना चाहिए। यही बुद्धिमत्ता है, यही ज्ञान है।

केवल ज्ञान के द्वारा ही हम अपने जीवन में खुशी और परमानंद बनाए रख सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति दुखी है और लटका हुआ चेहरा लिए हुए है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वह अपनी ज्ञान शक्ति का उपयोग नही कर रहा। यदि आप ज्ञान संपन्न हैं तो दुनिया की कोई ताकत आपको अवसाद ग्रस्त नही कर सकती।

संक्षेप में, गणेश जी के हाथ में मिठाई यह दर्शाती है कि सच्चे ज्ञान द्वारा परमानंद की वह प्राप्ति सम्भव है जो जीवन में खुशी, सहजता, सरलता लाती है तथा हमारी चेतना को मुक्त करती है।

पाश एवं अंकुश

गणेश जी के हाथों में जो अस्त्र-शस्त्र हैं उनका भी प्रतीकात्मक महत्व है। उनके एक हाथ में ‘अंकुश’ है; एक प्रकार की छड़ी जिससे हाथी को जगाने और आगे बढ़ने को उद्यत किया जाता है; यह ‘जागृति’ का सूचक है। और पाश, डोरी, जो संयम की प्रतीक है। जब हम जागृत होते हैं, अज्ञानता से ज्ञान में आते हैं, तो बहुत सारी ऊर्जा विस्फोटित होती है। यदि उस ऊर्जा को नियंत्रित करके उचित दिशा न दी जाए तो वह बहुत गड़बड़ कर सकती है। पाश अथवा डोरी का अर्थ ही यही है कि हमें स्वयं को अनुशासन में बांध कर रखना है।

पेट के चारों ओर लिपटा हुआ नाग 

आज के समय में गणेश जी को बड़े पेट सहित ही चित्रित किया जाता है; उनका बड़ा पेट उदारता तथा पूर्ण स्वीकार्यता (स्वीकरण) का प्रतीक है। पुराणों में कही गई एक कथा के अनुसार, एक दिन गणेश जी ने इतना दूध पी लिया कि उनका पेट फट गया, इसलिए उन्होंने एक नाग को पकड़ कर अपने पेट पर बांध लिया। यह दृष्टांत दर्शाता है कि बिना जागरूकता/ सजगता के लोगों और परिस्थितियों को स्वीकार करने का भी बहुत महत्व नहीं है। यह तो वैसा है जैसे हम किसी को निद्रावस्था में स्वीकार कर रहे हों! यह तो अत्यंत सरल है। तथापि जब हम सजग होते हैं – कोबरा नाग उच्च कोटि की सजगता का प्रतीक है, उस अवस्था में ही सच्चे अर्थों में दूसरों के प्रति स्वीकार्यता और प्रेम होता है।

इसके अतिरिक्त हम अपने सभी संकटों और पीड़ाओं के दु:स्वप्न को ‘दूर्वा’ घास के रूप में गणेश जी को अर्पित करते हैं।

सिर झुकाना और आशीर्वाद

गणेश जी का अभयमुद्रा में उठा हुआ हाथ संदेश देता है – “डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ”; और उनका जो हाथ नीचे है, हथेली ऊपर की ओर रखे हुए, वरदमुद्रा (वरदान देने की मुद्रा) में, उसका अर्थ है अनंत काल तक देते रहना तथा भक्त को झुकने के लिए आमंत्रण देना। झुकने का अर्थ है पृथ्वी में वापिस समा जाना, जो इस सत्य का प्रतीक है कि हमें एक दिन धरती में ही समा जाना है। गर्भावस्था में हमारी स्थिति ऐसी ही  होती है, सिर झुका हुआ और शेष शरीर वृत्ताकार अवस्था में। यहाँ तक कि जन्म के समय भी हम संसार में सिर नीचे की ओर लिए हुए ही आते हैं। झुक जाना हमारा स्वभाव है।

प्राय: हम ऐसे पोस्टरों में, जिनमें गणेश जी अपने माता-पिता को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर रहे होते हैं, चाँद को मुस्कुराते हुए देखते हैं। यहाँ चाँद हमारे मन का प्रतीक है – क्योंकि मन बुद्धिमता पर प्रसन्न ही होता है।

सारांश

आज संसार दुखी है क्योंकि इसमें बुद्धिमता और सच्चे ज्ञान का अभाव है। महिलाओं व पुरुषों, दोनों को जागृत/सजग होकर देखना और समझना चाहिए कि सब कुछ परिवर्तनशील है, सब बदल ही रहा है। इस सजगता के साथ कि सब कुछ बदल रहा है, आप किसी भी चीज को पकड़े नहीं रह सकते क्योंकि कुछ भी पकड़ कर रखने लायक है भी नहीं। आप यह भी समझ पाओगे कि ऐसा कुछ तो है जो हर पल आपके साथ है।आप ही तो वह निर्मल, शुद्ध, निष्कलंक चेतना हो जो अनंत काल से ज्योति रूप में प्रज्वलित है और रहेगी।

इस प्रकार, भगवान गणेश का प्रतीकात्मक रूप/ आकार हमें जीवन में ज्ञान तथा संतुलन में रहने का उत्तम मार्ग दिखाता है। यह सब प्रतीक धर्मों की सीमाओं से परे हैं तथा इनका सार्वभौमिक महत्व है। यह हमें जीवन की चुनौतियों के बीच अज्ञानता को दूर करने,  परिवर्तन को स्वीकार करने तथा जीवन को संतुलित रखने हेतु ज्ञान की शक्ति का स्मरण कराते रहते हैं। इस सच्चे ज्ञान द्वारा ही हम बुद्धि का विकास, हर पल को उत्सव समझने, तथा जीवन को उसके समग्र रूप में स्वीकार करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

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