क्या आप जानते हैं, छह दर्शनों में से पहले तीन दर्शन तो भगवान के बारे में बात तक नहीं करते, न्याय, वैशेषिक और सांख्य दर्शन। गौतम महर्षि के द्वारा रचित न्याय दर्शन ज्ञान के बारे में चर्चा करता है कि आपका ज्ञान सही है या नहीं। ज्ञान के माध्यम को जानना कि वह सही है या नहीं, यह है न्याय दर्शन। उदाहरण के लिए, आप अपनी इन्द्रियों के द्वारा ये देख पाते हैं, कि सूर्य ढल रहा है या सूर्य निकल रहा है। लेकिन न्याय दर्शन कहता है, ‘नहीं, आप केवल उस पर विश्वास नहीं कर सकते, जो आप देख रहे हैं, आपको उससे परे जाकर खोजना है, कि क्या वास्तव में सूर्य ढल रहा है या फिर पृथ्वी घूम रही है?’

वैशेषिक दर्शन

हमें लगता है कि कोपरनिकस ने यह खोज की थी कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है, मगर यह बिल्कुल असत्य है। उन्होंने ज़रूर पता लगाया था, लेकिन उसके पहले, भारत में बहुत लम्बे समय से लोग यह बात जानते थे कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। न्याय दर्शन इन सबके बारे में बात करता है। वह बात करता है धारणाओं की और उन धारणाओं के संशोधन की।

और फिर आता है वैशेषिक दर्शन, यह संसार की सभी वस्तुओं की गिनती करता है; जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, और फिर सारी वस्तुएं एवं विषय और इन सबका विश्लेषण। यह है वैशेषिक दर्शन। इसमें वे मन, चेतना, बुद्धि, स्मृति इत्यादि के बारे में चर्चा करते हैं। इसके बाद है सांख्य दर्शन।

तो ये तीन दर्शन ईश्वर के बारे में बात नहीं करते, बल्कि वे चेतना के बारे में बात करते हैं। केवल योग-सूत्रों में जो कि चौथा दर्शन है वे ईश्वर के विषय पर चर्चा करते हैं। इसलिए, आपको ईश्वर पर विश्वास करने के लिए विवश महसूस नहीं करना है, लेकिन आपको किसी पर तो विश्वास करना होगा। आपको कम से कम चेतना पर तो विश्वास करना होगा। 

भगवान ही तो अस्तित्व है 

आमतौर पर जब हम ईश्वर के बारे में सोचते हैं, तो हम स्वर्ग में बैठे किसी व्यक्ति के बारे में सोचते हैं, जिसने ये सृष्टि बनाई, और फिर इस सृष्टि से दूर जाकर बैठ गए और हर एक के अंदर गलतियां निकालने में जुट गए। आप जो भी करें, वे एक डंडा लेकर आपको सज़ा देने को तैयार बैठे हैं।

हमने ऐसे भगवान के बारे में कभी बात नहीं करी। भगवान ही तो अस्तित्व है। यह पूरी सृष्टि एक ऐसे तत्व से बनी है जिसका नाम है प्रेम, और यही तो ईश्वर है! आप ईश्वर से अलग नहीं हैं। ईश्वर के बाहर कुछ भी नहीं है; सब कुछ ईश्वर के अंदर ही स्थापित है। तो यह अच्छा, बुरा, सही, गलत और इन सबसे परे है। सुख दुःख, यह सब कोई मायने नहीं रखता। केवल ‘एक’ है जिसका अस्तित्व है। वह ‘एक’ पूर्ण है, और यदि आप उसे कोई नाम देना चाहें तो ईश्वर कह सकते हैं। या फिर चिंता मत करिये, केवल स्वयं को जान जाईये।

चेतना ही प्रेम है। चेतना ही भगवान है। चेतना का क्या लक्ष्ण है – अस्ति, भांति, प्रीति। जो होता है, जो प्रकाशमान है और जो प्रीति है – यह तीन‌ लक्ष्ण हैं। ईश्वर का क्या लक्ष्ण है – ईश्वर हैं और उनके ‘हैं पन’ का महसूस कराना है भांति। यही तो कहते हैं – ‘तत्वं असि’। अरे, तुम वही हो। जागो। भारतीय संस्कृति का पहला महावाक्य यही है – ‘तत्वं असि’। इसी को कहते हैं ब्रह्मोप्देश। बच्चे जब छोटे होते हैं, उनको कान में बताते हैं, तुम सच्चिदानंद हो। जो मैं हूं सो तू है। यह ज्ञान है।

गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी की ज्ञान वार्ता पर आधारित

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