योग शब्द संस्कृत के शब्द ‘युज’ से लिया गया है जिसका अर्थ है “जोड़ना”। योग 5,000 साल से अधिक पुराना भारतीय ज्ञान है। योग की मुख्य शिक्षा मन की समभाव स्थिति बनाए रखना है। किसी भी कार्य को सजगता के साथ करने में सक्षम होना।

योग के माध्यम से प्रयास छोड़ने की कला सीखकर, व्यक्ति अनंत के साथ पूर्ण सामंजस्य की स्थिति का अनुभव करता है। योग हमारे व्यक्तित्व में पूर्ण संतुलन ला सकता है। आधुनिक युग में मानवीय व्यावहारिक विज्ञान जिन समस्याओं के समाधान खोजने में लगा है, योग के द्वारा उनके समाधान की आशा दिखाई देती है। योग मानव क्षमता को पूर्ण रूप से विकसित करने का उपाय है, यह उस दिव्य चेतना के साथ एक होने के सर्वोच्च लक्ष्य का मार्ग है।

– गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर

योग के विषय में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं:

योग का उद्देश्य (Purpose of Yoga in Hindi)

योग के प्रतिपादक, महर्षि पतञ्जलि स्पष्ट कहते हैं कि “योग का उद्देश्य दुख को आने से पहले ही रोकना है”। चाहे वह लालच हो, क्रोध हो, ईर्ष्या हो, घृणा हो या निराशा, इन सभी नकारात्मक भावनाओं को योग द्वारा ठीक किया जा सकता है और उनको नई दिशा दी जा सकती है। किसी भी कार्य को सजगता के साथ करने में सक्षम होना।

योगः कर्मसु कौशलम्”, अर्थात् कर्म को कुशलतापूर्वक करना और व्यक्त करना ही योग है। योग अपना जीवन जीना, मन को नियंत्रित करना, भावनाओं को संभलना, लोगों के साथ रहने, प्रेम से रहना और उस प्रेम को घृणा में परिवर्तित न होने देने की कला है। इस संसार में प्रेम तो हर कोई करता है किंतु वह प्रेम लंबे समय तक वैसा नहीं रह पाता। यह प्रायः घृणा में परिवर्तित हो जाता है, कई बार तो लगभग तुरंत ही। योग वह कला है, वह दृष्टिकोण है जो प्रेम को प्रेम बनाए रखता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास (Yoga History in Hindi)

वैदिक ज्ञान के पदानुक्रम में चार वेद हैं – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, और उनके आगे चार उपवेद – आयुर्वेद, अर्थवेद, धनुर्वेद और गंधर्ववेद आते हैं। इसी क्रम में आगे चल कर छ: उपांग या घटक हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष। इनको आगे छ: उप घटकों में वर्गीकृत किया गया है – न्याय, वैशेषिक, संख्या, मीमांसा, वेदान्त और योग

यहाँ तक कि लगभग 2700 वर्ष पुरानी सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी ऐसी मोहरें और जीवावशेष पाए गए हैं जिन पर योग करते हुए चित्र अंकित हैं। इससे पता चलता है कि मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरणों में भी लोगों को योग का ज्ञान था। योग की उत्पत्ति के विषय में अधिक जानने के लिए यहाँ पढ़ें

चार प्रकार के योग (Yoga ke Prakar)

योग विज्ञान जीवन जीने की कला का पूर्ण सार है, जिसमें ज्ञान योग – दर्शन शास्त्र, भक्ति योग – दिव्य आनन्द, कर्म योग – आनंदमयी क्रिया, तथा राजयोग – मन को नियंत्रित करने का योग सम्मिलित है।

ज्ञान योग

ज्ञान योग स्वयं को जानने के लिए अनुभावनात्मक ज्ञान का मार्ग है जो मन को पुनः पवित्र करता है।

भक्ति योग

भक्ति योग ईश्वर को एक व्यक्ति के रूप में मान कर आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा उसके प्रति समर्पण भाव से निष्ठा रखना है।

कर्म योग

कर्म योग ‘कार्य’ करने का मार्ग है, जिसमें परिणाम से जुड़े बिना अपना शत प्रतिशत प्रयास करने का ज्ञान है। अपने कर्मों के फल से लगाव न रखते हुए कार्य करना –  यही ‘स्वयं’ से मिलन का पथ है , जो योग का लक्ष्य है।

राज योग

राज योग को आगे आठ भागों में विभाजित किया गया है। राज योग के केंद्र में योगासनों के अभ्यास में विभिन्न पद्धतियों को आपस में संतुलित करना और उनका एकीकरण।

योग के अनेक लाभ (Yoga ke Phayde)

  • योग आपको व्यवहार को मिलनसार और सुखद बनाता है।
  • यह विश्राम, आनंद तथा सृजनात्मक सोच का पर्यायवाची है।
  • सभी प्रकार के तनाव के रहते हुए भी यह हमारे चेहरों पर मुस्कान बनाए रखता है।
  • मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार लाता है।
  • आपकी अंतः प्रज्ञा, सजगता, स्पष्टता और शांति बढ़ाता है।

श्री श्री स्कूल ऑफ योग ही क्यों?

श्री श्री योग प्रशिक्षक कार्यक्रम में योग की सभी शैलियों को समन्वयित करके उनके विषय में विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाता है, जिनमें सम्मिलित हैं:

  • हठ योग
  • राज योग
  • ज्ञान योग
  • कर्म योग
  • भक्ति योग और भी बहुत कुछ।

हमारे प्रशिक्षण के मुख्य तत्त्व हैं आसन, प्राणायाम, ध्यान तथा योग मैट से परे योग का अनुभव और प्रयोग।

हमारे कार्यक्रम

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200 घंटे
योग प्रशिक्षक कार्यक्रम

योग के पथ पर अपनी यात्रा आरंभ करें और प्रामाणिक योग शिक्षा की गहराई अनुभव करें।

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300 घंटे
एडवांस योग प्रशिक्षक कार्यक्रम

यह कार्यक्रम योग को एक समग्र विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करता है जिसमें विभिन्न योग ग्रंथों के ज्ञान, शिक्षण कौशल तथा योगिक क्रियाओं का ज्ञान सिखाया जाता है।

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श्री श्री योग क्लासेज
(लेवल 1)

योग के विषय में एक समग्र दृष्टिकोण रखते हुए अपने शारीरिक लचीलेपन, शक्ति और स्वास्थ्य में सुधार करें और मन को केन्द्रित और सजगता को बढ़ाएँ।

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श्री श्री योग डीप डाइव
(लेवल 2)

श्री श्री योग डीप डाइव एक विशेष रूप से तैयार किया गया कार्यक्रम है जिसमें अग्रिम स्तर की योगिक विषहरण प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया गया है जिनका शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

योग के विषय में पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न

योग का विज्ञान अपने आप में जीवन यापन के संपूर्ण सार को आत्मसात् करता है जिसमें ज्ञान योग अथवा दर्शनशास्त्र, भक्ति योग अथवा दिव्य आनंद, कर्म योग अथवा आनंदमयी क्रिया और राज योग अथवा मन को नियंत्रण में रखने का मार्ग सम्मिलित है। योग के आठ अंग हैं और उनमें से एक अंग है शारीरिक आसन। राज योग के केंद्र में इन विभिन्न दृष्टिकोणों को एकीकृत तथा संतुलित करके अभ्यास करना ही योगासन है।
पतञ्जलि योग सूत्र में महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंगों की व्याख्या की है। यह आठ अंग हैं: यम (सामाजिक शिष्टाचार), नियम (वैयक्तिक शिष्टाचार), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार (इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाना), धारणा (एकीकृत फोकस), ध्यान तथा समाधि
योग मात्र शारीरिक व्यायाम अथवा आसन न हो कर स्वयं में एक सम्पूर्ण विज्ञान है। यह शरीर, मन, आत्मा और ब्रह्मांड को एकजुट करता है। यह शांति प्रदान करता है और व्यक्ति के व्यवहार, चिंतन, तथा मनोभाव में बड़ा बदलाव लाता है। मुद्राएँ यद्यपि योग का ही अंग हैं, तथापि इसको केवल एक शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक शिशु एक योगी होता है। शिशु अपने शौश्वकाल में योगी के सभी गुणों को प्रदर्शित करता है – अपनी मुद्राओं, श्वास लेने के स्वरूप, बोधात्मक योग्यता, कुशाग्रता तथा वर्तमान पल में रहने की निपुणता के रूप में। अतः योग का मनुष्य के समग्र विकास, अभिव्यक्ति तथा जीवन से गहरा नाता है।
जो व्यक्ति निपुण, शांत व निर्मल, प्रसन्न, संतोषी तथा बच्चे जैसा हो, वह योगी है। प्रत्येक शिशु एक योगी है और प्रत्येक योगी एक शिशु। इसका अर्थ यह नहीं है कि बचकाना व्यवहार करना अथवा परिपक्व न होना, अपितु यह कि एक बच्चे जैसी ताजगी, सादगी, निष्कपटता, निडरता जैसे गुणों का होना और अवरोध अथवा अहंकार रहित मन होना। योगी वह है जिसकी चेतना खिली हुई हो। यह सब एक योगी के गुण हैं।
जैसे जैसे हम बड़े होते हैं, हम अपनी सहजता और सहजज्ञान संबंधी योग्यता खो देते हैं। पशुओं तथा बच्चों का सहजज्ञान बोध वयस्कों से अधिक होता है। ऐसा इसलिए है कि हम अपने मन में चीजों को इतना जटिल बना लेते हैं जो वास्तव में ऐसे होती नहीं हैं। हमारे मन की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह नकारात्मक चीजों को झट पकड़ता है। यदि आपको दस बार प्रशंसा मिले और एक बार अपमान, तो मन उस अपमान को ही पकड़ता है। यह नकारात्मकता को पकड़ने की प्रवृत्ति बच्चों में नहीं होती। किसी तरह, हम इस प्रवृत्ति को बड़े होते होते प्राप्त कर लेते हैं। योग द्वारा हम अपने मूल स्वभाव की ओर पुनः वापिस जाने लगते हैं जहां हम जीवन के सकारात्मक पहलुओं को ही देखते हैं और समाधान खोजने के प्रयास करते रहते हैं। यह जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है। जब सब तरफ निराशा छायी हो तो उस समय योग ही बहुत अधिक आवश्यक उत्साह, ऊर्जा तथा सहजज्ञान बोध ले कर आता है।
योग एक तकनीक है, ऐसी तकनीक जो आपको अधिक ऊर्जावान, प्रसन्नचित्त और करुणामय बनाने में सहायता करती है। योग एक तकनीक है जो तनाव, क्रोध, लोभ तथा अन्य सभी प्रकार की नकारात्मक भावनाओं को दूर करती है। यदि कोई कहता या सोचता है कि योग उनके धर्म के विरुद्ध है, तो यह उनकी अज्ञानता ही है क्योंकि योग तो उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने की शक्ति देता है। यदि कोई धर्म सोचने की स्वतंत्रता और आत्मा की स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करता तो वह मानवता और अपने अनुयायियों के साथ अन्याय कर रहा है। सभी धर्मों, सभी संप्रदायों का उद्देश्य पूरी सृष्टि पर शांति, प्रेम, स्वतंत्रता लाना और अपनत्व, आपसी भाईचारा, बंधुत्व और भगिनीत्व की भावना स्थापित करना ही है और योग इन धर्मों और संप्रदायों के इन ध्येयों  को प्राप्त करने की एक तकनीक है।
इसको ऐसे समझो; योग आत्मा है और अन्य सब कुछ उस के परिधान की भाँति है। आत्मा के बिना शरीर नहीं हो सकता और शरीर के बिना आत्मा। महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंग बताए हैं और सभी अंग साथ साथ विकसित होते हैं, एक के बाद एक नहीं। गर्भ में भी ऐसा नहीं होता कि शिशु में पहले टांगें बनती हों और फिर बाजुएँ अथवा सिर। सभी अंगों का विकास साथ साथ ही होता है। इसी प्रकार योग के आठों अंग भी साथ साथ ही चलते हैं।
प्राचीन ऋषियों ने कहा है कि ‘विस्मयो योगभूमिका:’ , जिसका भावार्थ है 
‘विस्मय योग की भूमिका है’। जब आपके मन में स्वयं को और प्रकृति को देख कर आश्चर्य का भाव जगे तो आपके भीतर तत्त्व के गूढ़ ज्ञान का उदय होता है; आपका अपने जीवन में कुछ अलौकिक, अति सुंदर, कुछ ठोस फिर भी निराकार से संपर्क जुड़ने लगता है। यदि आप आश्चर्यचकित नहीं होते हो तो आप योगी नहीं हो।
योग व्यक्ति को जीवन में अधिक जिम्मेदार बनने में भी सहायता करता है। हमारे पास जीवन में एक योगी अथवा गैर योगी में से एक भूमिका चुनने का विकल्प है – अर्थात् आप जिम्मेदार बनना चाहेंगे या गैर जिम्मेदार। आप एक जिम्मेदार अध्यापक, जिम्मेदार डॉक्टर, व्यवसायी, कुछ भी हो सकते हैं, किसको फिक्र होगी? दूसरों की परवाह करना, साझा करना और जिम्मेदार होना, यह सब गुण हम सब के भीतर सुप्त अवस्था में होते तो हैं, योग इनको पोषित करके पूरी तरह खिला देता है। योग आपको अधिक जिम्मेदार इसलिए बना देता है क्योंकि यह आपके भीतर अधिक ऊर्जा और उत्साह का संचार करता है। आप जिम्मेदारी उठाना कब पसंद नहीं करते? जब आप थके और तनावग्रस्त होते हो। यदि आपने इन दो समस्याओं को सँभाल लिया है तो आप निश्चित ही बिना बोझ समझे अधिक जिम्मेदारी उठाना चाहोगे।
जब आप अपने अंतर्द्वंद्वों के मूल में जाओगे तो पाओगे कि यह तनाव, अविश्वास, और दूसरों से भय के कारण हैं। योग इन तीनों से पार पाने में सहायक है। दूसरों का भय मिट जाता है क्योंकि आपकी सजगता, आपकी चेतना का विस्तार हो जाता है। आप अनुभव करने लगते हो कि हर व्यक्ति आपका अपना ही है और आप उनके ही हो। हमारे भीतर अपनी पहचान खोने का, अपना अस्तित्व खोने का भय बहुत गहरे तक अंतर्निहित है। लोगों के मन से इन भयभीत करने वाली भावनाओं को दूर करने के लिए योग सर्वश्रेष्ठ युक्ति है।
हम अपनी उपस्थिति से, अपनी तरंगों से बहुत कुछ व्यक्त करते हैं। योग की हमारी तरंगों को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका है। जब आपका कोई घनिष्ठ आपको कहे “आपका दिन शुभ हो!” और यही बात किसी स्टोर में अथवा उड़ान से उतरने पर कही जाए तो क्या आपने कभी इन दोनों अवस्थाओं में कोई अंतर अनुभव किया है? जब विमान परिचारिका अथवा स्टोर का प्रबंधक यह बात कहता है तो संभवतः वे इसे दिल से नहीं कह रहे होते। किंतु जब यही शब्द किसी घनिष्ठ मित्र की ओर से आते हैं तो निश्चित रूप से उनमें विशेष तरंगें होती हैं। 
जब किसी के साथ हमारा संपर्क टूटता है तो हम कहते हैं कि “हमारी फ्रीक्वेंसी मेल नहीं खाती” क्योंकि हमारी संवाद करने की योग्यता इस बात पर निर्भर करती है कि हम दूसरों के संवाद को किस सीमा तक ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ योग हमारे मन को स्पष्ट बनाने में सहायता करता है।

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