महर्षि पतंजलि कहते है कि मन की पांच वृत्तियाँ हैं – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति। अभ्यास और वैराग्य इन पांच वृत्तियों के निरोध का उपाय है। इस ज्ञान पत्र में हम अभ्यास के बारे में जानेंगें।

अभ्यास

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः

जो भी तुम स्वयं में स्थित होने के लिए करते हो, वही अभ्यास है, दृष्टा के स्वरुप में होना अभ्यास है। वह जो तुम इस क्षण में आने के लिए करते हो, वह अभ्यास है। यदि मन पांच वृत्तियों से मुक्त हो अभी इसी पल में हो, इस क्षण में, तब वह अभ्यास है। भूतकाल की स्मृति से मन को वर्तमान क्षण में लाने के लिए जो मामूली सा प्रयास है, वही अभ्यास है।
इस क्षण देखो कि मन में कहीं कोई तर्क वितर्क तो नहीं, प्रमाण से मन मुक्त है, प्रमाण में भी मन की कोई रूचि न हो, न ही किसी मिथ्या ज्ञान मे रूचि हो, न ही सही ज्ञान में। जब भी मन मिथ्या ज्ञान में होता है तो उसे लगता है वह सच्चे ज्ञान में है। तुम्हें कुछ भी जानने में कोई रूचि नहीं है … ज्ञान से भी मन मुक्त हो।

सजगता पूर्वक मन को देखो कि मन कुछ देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्श करने और कुछ समझने के लिए भी उत्सुक नहीं है। परिस्थिति कैसी भी हो, कोई चिंता नहीं, गलत अथवा सही, कुछ धारणा भी न हो।

देखो, मन किसी कल्पना में तो नहीं। जैसे ही यह जानते है कि यह कल्पना है, वह छूट जाती है। जैसे स्वप्न के स्वप्न होने का पता चलता है वह टूट जाता है, इसी तरह विकल्प में होने की जाग्रति मात्र से मन मुक्त हो जाता है। निद्रा और स्मृति से भी मुक्त हो जाओ।

जैसे इस क्षण आप मुक्त हो, पूर्ण और शांत हो, यही अभ्यास है। मन भूतकाल में जाने का प्रयास कर सकता है और विकल्प में जा सकता है, कुछ ज्ञान और स्मृति में भी; परन्तु इन सभी के वृत्ति होने की जाग्रति रखें। इस क्षण बिना राग द्वेष के पुनः पुनः अपने केंद्र में आ जाना ही अभ्यास है।

मन और वर्तमान क्षण

लहर सागर की गहराई को नहीं जान सकती, जैसे ही लहर गहराई में उतरती है वह लहर नहीं रही। इसी तरह मन भी तुम्हारे अस्तित्त्व की गहराई में नहीं पहुंच सकता, जैसे ही मन गहराई में उतरता है वह मन नहीं रहता।
मन ऊपरी परत है, सतही है। मन वहां कभी नहीं पहुंचेगा, जहाँ तुम हो। मन हमेशा वाय वाय करता रहता है। तुम्हें ये अनुभव भी है जब तुम कहते हो ”अरे, यह सब मेरे मन का खेल है।” और उसी क्षण आराम मिल जाता है। जैसे जैसे यह जागरूकता बढ़ती है, वही अभ्यास है।

स्थिर और शांत होने के लिए जो प्रयास है, वही अभ्यास है। जैसे ही तुम इस क्षण के लिए जागरूक होते हो, यह क्षण बीत जाता है। तुम कहते हो, अभी इस क्षण पर जैसे ही तुमने यह कहा, वह पल बीत गया होता है।

वर्तमान क्षण में स्थिर होने के लिए, प्रयास अभ्यास है। वर्तमान क्षण बिंदु मात्र नहीं है, यह बहुत गहरा और विशाल है। वर्तमान क्षण एक बिंदु मात्र नहीं है, यह सभी आयामों में अनंत है। अभ्यास है वर्तमान क्षण में स्थिर हो जाना, यही अभ्यास का उद्देश्य है। यह कैसे हो सकता है?

अभ्यास कैसा हो?

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः

पूरे सत्कार और सम्मान के साथ निरंतर किये गए लम्बे समय के अभ्यास से, यह संभव है। जो भी जीवन में मूल्यवान है, वह स्थापित होने में समय लेता है, उसमे निपुणता आने में समय लगता है।

उंगलियां वही हैं पर बांसुरी सीखने में समय लगता है, तुम ये नहीं कह सकते कि तुम एक ही दिन में बांसुरी बजाने लगोगे। किसी भी वाद्ययंत्र को सीखने के लिए समय लगता है और उसमे निपुणता के लिए कहीं अधिक। मात्र संगीत ही नहीं, फुटबॉल सीखने के लिए भी तुम्हें समय और प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। इसी तरह जिम में भी तुम्हारी एक दिन में मांसपेशियां नहीं बनती। जैसे शरीर के विकास के लिए उसकी अपनी आवश्यकता है, वैसे ही मन के विकास के लिए भी अपना समय लगता है, बल्कि मन को अधिक समय की आवश्यकता होती है।

अभ्यास के लिए बहुत लम्बा समय भी नहीं, पर ठीक ठीक समय, बिना अंतराल के और निरंतर होने की आवश्यकता है। अक्सर हम क्या करते हैं, कुछ सीखते हैं और छोड़ देते हैं, फिर कुछ समय बाद शुरू करते हैं। मनमर्जी से जब करना है किया, नहीं इच्छा हुई तो नहीं किया, ऐसे में जुड़ाव टूट जाता है।

दीर्घकाले- लम्बे समय तक, सत्कार सेवित- आदर और सत्कार के साथ।

कुछ लोग मात्र करने के लिए भी कर सकते हैं, बिना किसी उत्साह के, भुनभुनाते हुए, पर उसका कोई फायदा नहीं, यह अभ्यास नहीं हैं। अभ्यास है जिसमे आभार है, आदर है।

यह प्राय हमारे जीवन में कम होता है, हम कुछ भी करते हैं तो आदर और सत्कार के साथ नहीं करते। और यदि कुछ आदर के साथ करते भी है तो वह बहुत छोटे समय के लिए होता है। जब भी कुछ लम्बे समय के लिए करना हो तो उसमे आदर और सत्कार कम होता जाता हैं।
यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रविशंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है।

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