भारत में अधिकांश बच्चे विभिन्न देवी-देवताओं, और उनके अवतार (शारीरिक रूप) की कहानियों को सुनते हुए बड़े होते हैं। चाहे वह शिव, विष्णु या देवी हों; अलग-अलग शास्त्र हैं, जो पूरी तरह से उस विशेष देवता या देवी और उनके चमत्कारों के बारे में बताते हैं। इन्हीं शास्त्रों को पुराण कहा जाता है।
वैदिक साहित्य में, पुराण या पुराण शब्द दो शब्दों से बना है - पुरा (नगर) और नवा (नया)। पुराण का शाब्दिक अर्थ है- ज्ञान जो नगर में नया है। और भले ही ये कहानियाँ काफी पुरानी हैं, लेकिन जो ज्ञान हम उनके प्रतीकवाद से प्राप्त करते हैं वह हमारे दैनिक जीवन में भी काम करता है।
शिव-लिंग की कथा
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा और विष्णु ऊर्जा पैदा हुई। उनके आने के बाद, वे ये जानने के लिए उत्सुक थे कि वे कौन थे और क्यों पैदा हुए थे। अचानक, उन्होंने प्रकाश का एक स्तंभ देखा जो लंबवत और अंतहीन लग रहा था। इसलिए, ब्रह्मा और विष्णु दोनों ने यह पता लगाने का निर्णय लिया कि वे कौन हैं। और उन्हें पहले पता लगाना चाहिए कि वह प्रकाश / ऊर्जा का यह स्तंभ कौन / क्या है।
ब्रह्मा ने सिर का पता लगाने के लिए ऊपर जाने का निर्णय किया और विष्णु ने पैरों का पता लगाने के लिए नीचे की ओर जाने का निर्णय किया। वे दोनों आगे बढ़ते रहे लेकिन ऐसा लगता था कि प्रकाश का यह स्तंभ असीम था। एक समय के बाद, उन दोनों ने वापस लौटने का निर्णय किया जहां वे शुरू कर चुके थे।
जब वे वापस आए, तो ब्रह्मा और विष्णु ने साझा किया कि यह स्तंभ अंतहीन था। उस स्तंभ को शिव तत्त्व (ऊर्जा) और शिव की उत्पत्ति के रूप में दर्शाया गया था। यह शिव लिंग की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति, शिव लिंगम की उत्पत्ति भी थी। आज भी, हर शिव मंदिर में एक शिवलिंग पाया जा सकता है। शिवलिंग यह दर्शाता है कि शिव ऊर्जा अंतहीन है, इसका कोई आकार नहीं है, और यह ब्रह्मांड के हर अणु-परमाणु में व्याप्त है। तो, शिव वह तत्त्व या सार है जिससे ब्रह्मांड बना है। और एक शिवलिंग शिव की अनंत प्रकृति’की प्रतीकात्मक उपस्थिति है।
कैसे देवी पार्वती बनीं देवी अन्नपूर्णा
जब भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ और वे पहली बार कैलाश आयीं, तो उन्हें पता चला कि सभी शिव गण (कैलाश में रहने वाले भगवान शिव के भक्त) उनके जीवन जीने और उनके आनंद में रहने के आदी थे। कुछ ध्यान करेंगे, कुछ अपना काम करेंगे, और कुछ अन्य साधनाओं (आध्यात्मिक साधनाओं) को करने में व्यस्त रहेंगे। और शिव स्वयं हमेशा ध्यान में रहते। हर कोई योगी (तपस्वी) का
जीवन जीता था। किसी ने भी संवारने, स्वच्छता और यहां तक कि भोजन की परवाह नहीं की। वे सभी कुंवारे जीवन जी रहे थे।
देवी पार्वती ने यह सब देखा और काफी हैरान हुईं। इसे बदलने के लिए, उन्होंने पहली बार रसोई स्थापित करने का निर्णय लिया। उन्होंने अलग-अलग बर्तन मंगवाए और एक रसोई बनाई और फिर खाना बनाने के लिए आवश्यक अन्य चीजों के लिए शिव जी के गणों से पूछना शुरू किया। गणों ने आपत्ति जताई कि उन्हें रसोई की जरूरत नहीं थी क्योंकि वे कच्चे फल और कंदमूल (जड़ और मशरूम) खाने के आदी थे। गण इस बदलाव से खुश नहीं थे, लेकिन देवी पार्वती ने सभी के लिए खाना बनाने पर बल दिया।
जैसे ही भोजन पकना शुरू हुआ, इससे अलग-अलग प्रकार के आवाजें आने लगीं। गणों के अस्वीकृतिपूर्ण प्रदर्शन और भोजन पकने के शोर ने भगवान शिव का ध्यान भी बाधित हो गया। जब वे देखने आये कि क्या हो रहा है, तो भगवान शिव को भी लगा कि रसोई की कोई आवश्यकता नहीं है।
जब उन्होंने देवी पार्वती को रसोई की आवश्यकता नहीं होने की इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने पूछा, "क्या आप निश्चित हैं?"
"हां, मुझे विश्वास है," शिवजी ने उत्तर दिया।
"ठीक है, हम देखेंगे," देवी पार्वती ने कहा और वह स्थान त्याग कर चली गयीं |
देवी पार्वती प्रकृति (सृष्टि) की अवतार हैं और उन सभी चीजों को प्रकट करती हैं जिन्हें हम देख सकते हैं, सूंघ सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं और महसूस कर सकते हैं। जैसे ही वे वहाँ से चली गयीं, पके हुए भोजन की सुगंध ने कैलाश को पार करना शुरू कर दिया, जिससे सभी गण भूख अनुभव करने लगे। जैसे-जैसे उन्हें भूख की अनुभूति होने लगी शिव जी भी वैसा ही अनुभव करने लगे क्योंकि एक भगवान को वह अनुभव हो जाता है जो उनके भक्त अनुभव कर रहे होते हैं|
और इस प्रकार दूसरी बार, शिव जी का ध्यान भंग हो गया क्योंकि वह स्वयं में भूख बढ़ने की प्रवृत्ति देख कर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने गणों के साथ जाँच की और पाया कि सभी को भूख लग रही थी। लेकिन जब वे रसोई में गए, तो उन्होंने देखा कि सभी पात्र भोजन से खाली थे।
भगवान शिव करुणा के अवतार हैं। चूँकि उनके भक्त भूखे थे, वे देवी पार्वती की खोज में कैलाश से बाहर गए क्योंकि यह केवल देवी ही थीं जो उनकी भूख को शांत कर सकती थीं। संपूर्ण सृष्टि की खोज करने के बाद, भगवान ने काशी में देवी को पाया। विश्वनाथ (धरती के भगवान) का रूप लेते हुए, वह देवी पार्वती के पास गए और अपने भक्तों के लिए भोजन मांगा। देवी भी दयालु थीं और इस प्रकार उन्होंने देवी अन्नपूर्णा का रूप ले लिया। उस रूप को ग्रहण करने के बाद, उसने भगवान शिव को सारा भोजन दिया, जिन्होंने इसे ब्रह्मांड के सभी गणों और अन्य प्राणियों में वितरित किया।
इस कहानी को अन्नपूर्णा अष्टकम में दर्शाया गया है और इसमें से वह मंत्र आता है जो अक्सर भोजन ग्रहण करने से पहले सुनाया जाता है।
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्करप्राणवल्लभे।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वती
अन्नपूर्णा देवी, जो अनंत परिपूर्णता का अवतार हैं, जो शंकर को सबसे अधिक प्रिय हैं, हे देवी पार्वती, आप मुझ पर अपनी कृपा की धारा चढ़ाइए जिससे मुझमें आध्यात्मिक ज्ञान और पूर्णता उत्पन्न होगी।
माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः
बन्धवाः शिवभक्तश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्
देवी पार्वती, जो मेरी माँ हैं, और भगवान महेश्वर, जो मेरे पिता हैं, तीनों लोकों में सभी मानव रूप हैं, भगवान शिव के भक्त मेरे मित्र हैं।
इस मंत्र के साथ, हम प्रकृति और भोजन (देवी पार्वती) के अवतार और सभी ब्रह्मांड (भगवान महेश्वर) के स्वामी का आह्वान करते हैं और हम जिस समाज अंश हैं उसमे एकता की भावना और सार्वभौमिक समुदाय के भाईचारे को याद करते हैं | हर बार भोजन से पहले इस मंत्र का जाप किया जाता है।
शिव जी ने गणेश का सिर क्यों काट दिया था ?
देवी पार्वती गणेश की रचना करने के बाद, स्नान करने के लिए गईं और गणेश जी को द्वार की कमान संभालने के लिए कहा| उन्होंने किसी को भी अंदर नहीं जाने देने के लिए कहा। जब शिव जी पार्वती जी से मिलने आए, तो गणेश जी ने यह नहीं पहचाना कि शिव जी ही उनके पिता थे और उन्होंने शिव जी अन्दर जाने नहीं दिया। शिव ने गणेश जी के साथ वाद विवाद किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। क्रोध में शिव जी ने गणेश जी का सिर काट दिया|
देवी पार्वती, अपने पुत्र की मृत्यु से दुखी हो गयीं और उसे ठीक करने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। अन्य देवताओं समस्त ब्रह्मांड में समाधान की खोज की और एक हाथी पाया जिसने भगवान शिव के पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा था। उस हाथी का सिर गणेश के धड़ पर रख दिया गया और वहां से हाथी के सिर वाले भगवान पैदा हुए|
यह कहानी काफी लोकप्रिय है और भारत में बढ़ रहे हर बच्चे को बताई गई है। हालांकि, इस कहानी में एक गहरा प्रतीकवाद है |
भगवान शिव परमानंद (अनन्त निराकार आनंद) का स्वरुप हैं और देवी पार्वती जीव (शरीर रूप) का स्वरुप हैं। शिव और पार्वती का मिलन अहंकार (गणेश) के कारण नहीं हो सका। यह अहंकार था, जिसकी पहचान केवल शरीर के रूप में थी और जो अनंत आनंद को पहचान नहीं पाया। इस पहचान को अविद्या या स्वयं की अज्ञानता कहा जाता है। क्योंकि ज्ञान नहीं था, गणेश शिव की पहचान नहीं कर सके। यह तो है कि अहंकार आनंद से नष्ट हो जाता है। जीव की प्रार्थना के साथ, जब मन ज्ञान से भर जाता है, तब वह आनंद तत्व को पहचानने में सक्षम होता है और जीव और शिव का मिलन पूर्ण होता है।
विभिन्न पुराणों में इनकी तरह कई कहानियां हैं और उनमें से हर एक के साथ गहरी प्रतीकात्मकता जुड़ी हुई है। युवा और वृद्धों के लिए आचार्य रत्नानंद की एक पुस्तक है जिसमें इन कहानियों के साथ-साथ उनके प्रतीकात्मक अर्थ भी शामिल हैं। यह पुस्तक द आर्ट ऑफ लिविंग ऐप में पाई जा सकती है और वे कहानियाँ आपके बच्चों और किशोरों के ज्ञान को समृद्ध कर सकती हैं।
श्री श्री गुरुकुल के निदेशक, स्वामी हरिहर जी से प्राप्त जानकारी के आधार पर !
हमे आपसे सुनने में प्रसन्नता होगी।
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