सीता और शूर्पणखा दोनों एतिहासिक महिलाएं हैं। एक ने उन मूल्यों की स्थापना की जिनको सबको अपनाने की प्रेरणा मिलती है और दूसरी महिला ने हमें बताया कि हमें क्या नहीं करना चाहिए।
आज फिर समय है जब हम राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने जा रहे हैं तब रूककर देखने का समय है कि हम आज व्यक्तिगत स्तर और सामाजिक स्तर पर किस तरह के मूल्यों का स्थापित कर रहे हैं।
प्रत्येक बच्चा कीमती है परंतु उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है बालिका बच्चा। हमें उन मूल्यों की स्थापना करना है जिसमें लडकियों का सम्मान किया जाता था, उन्हे गृह लक्ष्मी और भाग्य लक्ष्मी का दर्जा दिया जाता था। आज हम महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलवाने की बात कर रहे हैं लेकिन हम यह सब अभी कर नहीं पाए हैं।
लोग अक्सर कहते हैं कि महिलाएं जीवन संवार भी सकती है और बिगाड भी कर सकती है। यह इसलिए है क्योकि महिलाएं पोषण देने वाली होती है। यदि पोषण देने वाली जडें मजबूत होंगी तो निश्चित ही तो हमारी आधारशिला मजबूत होगी जिस पर सब कुछ टिका है।
यदि महिलाओं के साथ खराब व्यवहार होता है तो हम कैसे एक समृद्ध और आदर्श समाज का निर्माण कर पाएंगे। पूराणों में भी कहा गया है कि "यत्र पूज्यते नारि, तत्र रम्यते देवता" - जहां नारी सम्मान होता है वहां देवता रमण करते हैं। पूराने समय में महिलाओं को उनकी उपस्थिती और उनके व्यवहार के लिए सम्मान दिया जाता था। आज उन्हे उस हक को मांगना पड रहा है। बराबरी के दावों को दरकिनार किया जा रहा है। गुस्से को आजकल सफलता का अंग माना जाता है जबकि गुस्सा महिला और पुरूष दोनों के लिए ठीक नहीं है। यदि मां गुस्सेवाली हैं तो उसका प्रभाव बच्चे पर भी पडता है क्योंकि वही उसकी प्रथम गुरू भी होती है। गर्भनाल से जुडे होने के कारण उनका संबंध अलग ही होता है। यदि मां संवेदनषील होती है तो इसका प्रभाव भी समाज पर अच्छा पडता है। केवल शांत मन से ही अच्छा और श्रेष्ठ निर्णय ले सकते हैं और किसी भी समस्या का हल निकाल सकते हैं।
जीवन यात्रा वास्तव में हमेषा न तो फूलों से भरी है न ही कांटों से भरी। हम गुजरे समय से जो अच्छा था वह लेते हैं और जो बुरा था उसे छोड देते हैं। लेकिन ज्ञान के साथ हम वर्तमान में जीना सीख जाते हैं। अपनी कमियों की बजाय खुबियों को ढूंढिए और जिम्मेदारी लीजिए, बैठे मत रहिए कि कोई हमें बराबरी का दर्जा आकर देगा।
आज के शिक्षण में केवल सूचनाएं ज्यादा हैं उनमें वास्तविक ज्ञान नहीं है। यह उसी तरह है कि हमारे पास १०० मेनु कार्ड हों और एक भी तरकारी बनाने का अनुभव नहीं हो। गलत जगहों पर गलत तरीके से हमारी आवाज उठाने से उस आवाज को तोडा-मरोडा जा रहा है। यह ऐसे ही हो रहा है जैसे आप चश्में की दूकान पर पिज्जा आर्डर कर रहे हों। इसे बदलना होगा।
जब आप बराबरी के लिए लडते हो इसका मतलब आप स्वीकार चुके हो कि आप कमजोर हैं। यदि आपके पास शिक्षा नहीं है तो आप उसे मांगिए।इसके लिए आपको अपने बच्चों के लिए खडा होना होगा। समाज में जरूरतों को बताने में स्पष्ट और साफ रहें। बालिका भ्रूण हत्या को भी रोकना होगा। बाल-विवाह को रोकना होगा। बालिकाएं स्कूल जाएं इसे सुनिश्चित करना होगा। ग्रामीण अंचल में महिलाओं के लिए शौचालय बनाए जाएं। हमें एक पहल को आगे तक ले जाकर काम करना होगा।
हमें यह बदलाव बार-बार लाना होंगे। एक ही बिन्दु में अटक कर नहीं रह जाना है। कौन कहता है आप गैर बराबर हो? आपकी आवाज सामाजिक मीडिया पर सुनी जाती है, चैनलों पर सुनी जाती है और आपके पास यह शक्तिशाली ताकत हैं उन पर बोल सकते हैं। आपको अपने दिमाग से अपने रास्ते स्वयं बनाने होंगे। आप यदि किसी कारण के लिए कार्य कर रहे हैं तो आपको निश्चित रूप से स्थान मिलेगा। अपनी पहचान और सम्मान प्राप्त करना होगा। आप इसकी मांग नहीं कर सकते। यह एक व्यवहारिक रास्ता नहीं हो सकता।
यदि आप इसे समझ रहे हैं और अपने जीवन के दृष्टिकोण को वृहद कर लेते हैं, ध्यान रखने, बांटने के भाव के साथ बालिकाओं के लिए जिम्मेदारी उठाते हैं तब आप पाएंगे कि प्रकृति भी आपका साथ देती है। आप अकेले नहीं हैं।
लेखिका भानू दीदी (भानू नरसिंहन) श्री श्री रवि शंकर जी की बहन हैं और वे स्वयं ध्यान की शिक्षिका है तथा आर्ट ऑफ लिविंग के महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम की निर्देशक हैं।
सोर्स - दैनिक भास्कर