प्रश्न : कई बार लड़ कर भी लोग ज़्यादा पास आ जाते हैं । क्या लड़ने से भी प्रेम बढ़ता है? यदि हाँ, तो कितना लड़ना चाहिए? और क्या यह तरीक़ा गुरु के पास भी ले के जा सकता है ?
विवाद के साथ यदि ज्ञान की उपस्थिति हो तो फिर आनंद है
भई लड़ने का कोई थर्मामीटर तो है नहीं कि कितना लड़ना चाहिए। हाँ, जहाँ प्रेम होता है वहाँ लड़ाई तो होती ही है । घर में पूछ लो, अपने माँ-बाप से पूछ लो, भाई-बहनों से पूछ लो । हाँ, मगर ज्ञान के साथ लड़ाई हो तो आनंद है । इसी को शास्त्रार्थ कहते थे । भारत में यह वाद-विवाद ऐसे फ़ालतू नहीं जाते थे । वाद-विवाद में वादे वादे जायते तत्व बोधा ! तत्व ज्ञान के लिए विद्वान लोग आपस में बैठ कर खंडन मंडन में लगे रहते थे ।
समाज के कल्याण के लिए हो लड़ाई तो कल्याणकारी है
आज ही मेरे मन में आया कि अभी तुम लोग “ स्वास्थ्य सप्ताह “ का प्रोग्राम कर रहे हो
न , ध्यान कर रहे हो , उसमें मैं भी बैठ रहा हूँ , तो इसमें मैं ये सोच रहा था, कुछ लोग जो वाद करें, वाद जल पवितंडा, यह सब है , न्याय शास्त्र में है । इसमें भी निपुणता आनी चाहिए । उस निपुणता से ऐसे लड़ने से भी समाज का कल्याण है । संस्कृत में एक छोटा सा सुभाषित है, उसमें कहते हैं - सिंहानाममहदालस्यम,सर्पानामचमहतभयं । विदूषानाम अनेकत्वम अतैवजगतसुखम
जंगल में शेर बड़ा आलसी प्राणी है , शेर से ज़्यादा आलसी प्राणी कुछ नहीं । इसीलिए जंगल बचा है । इससे और प्राणियों के लिए सुख है । ऐसे ही साँप ज़हरीला है मगर तुमसे ज़्यादा डर उसको है । आपने देखा न यहाँ आश्रम में अट्ठाईस तरह के साँप हैं, एक या दो नहीं । और हर एक टाइप में उनकी संख्या बहुत अधिक है । मगर वो तुम से डर कर भाग जाते हैं , तुम्हारे सामने नहीं आते ।
सर्पानामचमहतभयं विदूषानाम अनेकत्वम अतैवजगतसुखम | बुद्धिमान लोगों में अनेकत्व होता है , तरह-तरह से, अलग अलग ढंग से सोचते हैं । यह जगत के लिए कल्याणकारी है । एक कहानी भी है , एक बार पंजाब में दो मिठाई वाले दुकानदारों में झगड़ा हो गया । पत्थर तो नहीं , एक दूसरे पर लड्डू उठा उठा कर फेंकते थे । उनकी इस लड़ाई में पूरे गाँव ने जश्न मनाया क्योंकि इन दोनों की लड़ाई में सब को कुछ मिठाई मिल गयी । तो इस तरह से लड़ो , कोई बात नहीं , मगर अपनापन कभी हटना नहीं चाहिए ।
ज्ञान मतलब क्या, अपनापन , सभी हमारे अपने हैं । बच्चे माँ से लड़ते हैं, माँ बच्चों से लड़ती है , फिर भी कभी अलग नहीं होते हैं । हो जाते हैं क्या ? नहीं ।
भारत की यही सुंदरता है कि हम लड़ते हैं , झगड़ते हैं , फिर एक हो जाते हैं
यहाँ कर्नाटक में ये रिवाज़ है .......हम लोग जब छोटे थे , माँ से तो झगड़ा होता ही था, सबका होता है , किसका नहीं हुआ । है कोई यहाँ जिसका माँ से कभी झगड़ा नहीं हुआ , हाथ उठाओ । ( कोई हाथ नहीं उठा) । अच्छा कितने लोगों का झगड़ा होता रहा माँ से , हाथ उठाओ ... ( सभी हाथ उठ गए ) ! देखो ... ! तो कर्नाटक में यह रिवाज है कि माँ से झगड़ा भले हुआ हो , फिर भी सुबह उठ कर माँ के पाँव छूने हैं । स्कूल जाने से पहले, भगवान को प्रणाम कर के, माँ के पाँव छुए बिना स्कूल नहीं जाना । उसके बिना दिन शुरू ही नहीं होगा । फिर भी” हूँ “कर के भी पाँव छू कर ही स्कूल जाते थे । झगड़ा होने के बाद भी पाँव छूना कभी छोड़ा नहीं । तो यही रिवाज है अपना । भारत की यही सुंदरता है कि हम लड़ते हैं , झगड़ते हैं , फिर एक हो जाते हैं । तो ऐसे रखो ।
लड़ाई कभी भी दिल तक नहीं जानी चाहिए
कभी यह लड़ाई गले से नीचे उतर कर दिल तक नहीं जानी चाहिए । दिमाग को लड़ना चाहिए, दिल को नहीं लड़ना चाहिए । भगवान नीलकंठ को नीलकंठ इसीलिए कहते हैं कि जब समुद्रमंथन हुआ तो पहले तो जो ज़हर निकला, ज़हर पी लिया तो वो गले में रुक गया । माने ये कि ज़हर जो भी है वो गले से नीचे नहीं उतरना चाहिए । तो दिल में कड़वाहट नहीं होनी चाहिए । तब जीवन में सुख ही सुख है।
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी की ज्ञान वार्ता पर आधारित।