एक रविवार की देर शाम को डॉक्टर रंजना बोरसे बहुत जल्दी में लग रहीं थीं। सप्ताहांत इस नेत्र रोग विशेषज्ञ के लिए बहुत महत्व रखते हैं - कोई पारिवारिक रात्रि भोज या सप्ताहांत की छुट्टी की परियोजना बनाने के लिए नहीं बल्कि गाँव में और पड़ोस के इलाकों में समय व्यतीत करने के लिए। यह 48 वर्ष की डॉक्टर, किसान आत्महत्या से तबाह महाराष्ट्र में, अपने चिकित्सा अभ्यास के बाहर, जिंदगियाँ बचाने के मिशन पर हैं।
यह सब किस प्रकार शुरू हुआ ?
सन 2012 में एक यकायक उनके अंतर्मन ने डॉक्टर बोरसे को पुकारा - जल संकट के क्षेत्र में काम करने के लिए। अब एक नेत्र चिकित्सक को पानी के बारे में क्या जानकारी होगी ? स्वभावतः डॉक्टर बोरसे असमंजस में थीं कि वह कहाँ से शुरुआत करें। तभी उनकी मुलाकात विश्वसनीय सलाहकार और जाने-माने भू-विज्ञानी और सेवा निवृत्त जनता-अधिकारी सुरेश कनापुरकर से हुई। शिरपुर में अपने किए गए काम के लिए मशहूर कनापुरकर को चार दशकों का अनुभव है। उन्होंने करीब 40 गाँवों को 100 फ़ीसदी सिंचाई की व्यवस्था करने में मदद की है। सच तो यह है कि कन्नापुरकर प्रणाली का अपना एक अलग नाम है जिसको शीरपुर- प्रतिरूप कहते हैं।
नदियों की एनजीओप्लास्टी
आर्ट ऑफ़ लिविंग से 21 स्वयंसेवकों का समूह, अचलित धाराओं को पुनर्जीवित करने की कला सीखने के लिए के लिए शीर्पुर में आके कनापुरकर से मिला। जब तकनीक समझ ली गयी तब उसका प्रतिपालन करने के लिए डॉक्टर बोरसे और उनका दल जन सामान्य से धन इकठ्ठा करने में जुट गए। किसानों ने भी इस परियोजना में हिस्सा लिया और उन्होंने 1000 रूपए प्रति एकड़ के हिसाब से योगदान दिया। एक गाँव की औसत लागत पाँच लाख रूपए थी।
इस कार्य में धाराओं को हर 300 - 400 मीटर की दूरी पर चौड़ा और गहरा करना शामिल था।
इससे निश्चित रूप से धाराओं का बहाव कम हो गया और गाद जमना एवं गाद निकलना दोनों प्रक्रियाएं भी घट गयीं। गाद निकलना कम होने से पानी का बहाव ठीक हो गया और स्वभावतः भूमिगत संसाधनों का पुनर्भरण हो गया। इस गाद निकलने की प्रक्रियाओं के कम होने को कनापुरकर अक्सर धाराओं/नदियों की एंजियोप्लास्टी कह कर समझाते हैं।
उन्होंने सोना खोज निकाला था –
कुछ 50 वर्ष पूर्व ये धाराएँ पूरा साल बहती थीं, जो कि आगे जाकर नदियों और फिर समुद्र में जाकर मिल जाती थीं। डॉक्टर बोरसे कहती हैं, “सरकार द्वारा बनाये गए सीमेंट के बाँध, समय के साथ पानी का बहाव नियंत्रित करने में विफल हो गए थे।“
2012 में शुरू हुई सबसे पहली परियोजना ने, जिसके अंतर्गत 9 गाँवों को आवरण किया गया था, परिणाम दिखाने शुरू कर दिए थे। 41 करोड़ लीटर से ज्यादा पानी उपयोग में लाया गया और डॉक्टर बोरसे कहती हैं कि इस आयतन का 6 गुना पानी भूमि के अन्दर रिस जाता है। 2015 और 2016 के बीच 9 और गाँवों का आवरण किया गया। संभवतः यह प्रभाव सोने से भी ज्यादा मूल्यवान था ।
हर पर्वत का आरोहण
निसंदेह पानी एक ज्यादा महत्त्वपूर्ण समस्या का हल निकालने का मात्र एक साधन है। धाराओं के पुनार्युवन से 7-8 वर्ष पहले,rejuvenation of the streams किसानों ने जल का अधिक उपभोग करने वाली फसलें जैसे कि कपास और केले की फसलों का त्याग करना शुरू कर दिया था। उन्होंने ज्वार, बाजरा आदि लगाने शुरू कर दिए जिस से कि उनके आर्थिक परिणामों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
शीरपुर- प्रतिरूप के परिपालन के बाद धाराओं में जीवन वापस आ गया है और किसान फिर से अनार और केले जैसी फसलों की तरफ चल पड़े हैं । डॉक्टर बोरसे कहती हैं “अर्थशास्त्र अब फिर से बदल गया है” ।
जूनून उनका मार्गदर्शक है
डॉक्टर बोरसे और उनका दल 50 लाख रूपए की लागत से 7-8 गाँवों का आवरण करने की आशा रखते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में कई बदलाव आने से किसानों के ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा है जिससे उनका पुनर्नवा परियोजना में योगदान कम हो गया है। डॉक्टर बोरसे ने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि वो उसी मनोवेग और दृढ़ता से जुटी रहेंगी।
वह चमत्कारों में विश्वास रखती हैं और अपने विश्वास के प्रति झुकाव रखती हैं। और उसका परिणाम सबके सामने हैं !
कथाश्रेय: आर्ट ऑफ़ लिविंग संचारण ब्यूरो