तीन ऋण कोनसे है ?
आज श्रावण पूर्णिमा है। इससे पिछली पूर्णिमा ‘गुरु पूर्णिमा‘ गुरु और शिक्षिकों को समर्पित है। उससे पहले बुध पूर्णिमा और उससे पहले चैत्र पूर्णिमा थी। सो यह चौथी पूर्णिमा को श्रवण पूर्णिमा कहा जाता है और यह पूर्णिमा भाई बहन के प्रेम को समर्पित है। साथ ही आज के दिन जनेऊ भी बदला जाता है। जनेऊ बदलने का महत्व है कि यह हमें याद दिलाता है कि हमारी कर्तव्य निष्ठा इन तीन के प्रति है, हमपर तीन ऋण हैं -
- माता पिता के प्रति,
- समाज के प्रति और,
- गुरुदेव के प्रति
हम पर यह तीन ऋण, हमारे यह तीन कर्तव्य हैं - माता-पिता, समाज और गुरुदेव (ज्ञान) के प्रति। जनेऊ हमें हमारे इन तीन ऋणों के प्रति याद दिलाता है।
यज्ञोपवीत संस्कार / जनेऊ क्या है और क्यों धारण करते है ?
जब हम ऋण कहते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि हमने किसी से उधार, कर्ज़ा लिया हुआ है जो वापिस चुकाना है - किन्तु यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ ऋण का अर्थ, तात्पर्य हमारे कर्तव्य, उत्तरदायित्व से है। हमारी पिछली पीढ़ी, आगे आने वाली पीढ़ी के प्रति हमारा कर्तव्य, उत्तरदायित्व। इसीलिए आप कंधे पर जो जनेऊ धारण करते हैं उसमें धागे की तीन डोरियां होती हैं। मेरा शरीर, मन और वाणी पवित्र हों। और आपके कंधे पर यह धागा (जनेऊ) आपको नित्य प्रति आपके कर्तव्य, उत्तरदायित्व का स्मरण कराता है। प्राचीन काल में स्त्रियाँ भी जनेऊ धारण करती थीं। यह प्रथा किसी एक जाती, वर्ग तक सीमित नहीं थी अपितु सभी जातियों, वर्गों के लोग - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - जनेऊ धारण करते थे। परन्तु आगे चलकर यह प्रथा कुछ वर्गों में ही सीमित रह गई।
जब किसी का विवाह संपन्न होता है, तब वर को ६ डोरी का जनेऊ दिया जाता है - तीन डोरियाँ अपने लिए और तीन वधु के लिए। वधु को भी इसी प्रकार ६ डोरियाँ वाला जनेऊ मिलना चाहिए पर क्योंकि यह पुरुष प्रधान समाज है, अतः वर पर ही सिर्फ जनेऊ डाला जाता है। प्राचीन काल में स्त्रियों के लिए भी पुरुषों के सामान जनेऊ धारण करने की प्रथा प्रचलित थी - परन्तु अब विवाह पश्चात वर ही वधु के पक्ष का उत्तरदायित्व निभाता है, अर्थात उसके पक्ष का भी जनेऊ धारण करता है।
यज्ञोपवीत संस्कार का उद्देश्य / महत्त्व
अतः इस दिन जब जनेऊ बदला जाता है, संकल्प के साथ बदला जाता है कि - हे ईश्वर मुझे ऐसी योग्यता प्रद्दन करें जिससे मेरे प्रत्येक कार्य प्रभावी और प्रसिद्ध हों। कुछ करने के लिए भी योग्य, निपुण होना आवश्यक है। और जब शरीर, वाणी और मन मस्तिष्क शुद्ध होते हैं तब कार्य सिद्ध होते हैं।
चाहे आध्यात्मिक अथवा सांसारिक कार्य हों, मनुष्य में योग्यता, निपुणता होनी चाहिए। और इसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य का कर्तव्य परायण होना अति आवश्यक है। एक कर्तव्य परायण, ज़िम्मेदार मनुष्य ही किसी भी कार्य के लिए उपयुक्त है। यहाँ तक कहा जाता है कि “अगर आप किसी लापरवाह, गैर ज़िम्मेदार व्यक्ति को कार्य सौपेगें तो वह अवश्य ही नुक्सान देगा। ”
अगर आप एक लापरवाह आदमी को रसोई सौंपेगें और कहेंगे कि अगली सुबह नाश्ता तैयार करना है - तो जब आप नाश्ते के लिए जाएँगे तो कुछ भी तैयार नहीं मिलेगा।
अगर नाश्ता दिन के भोजन के समय परोसा जाए, तो वह व्यक्ति कर्तव्यहीन, गैर ज़िम्मेदार ही हुआ। और एक कर्तव्यहीन, गैर ज़िम्मेदार व्यक्ति चाहे सांसारिक अथवा आध्यात्मिक कार्य हों, उनके योग्य नहीं होता। अतः किसी भी व्यक्ति का कर्तव्य परायण, ज़िम्मेदार होना परम आवश्यक है। और यज्ञोपवीत संस्कार का उद्देश्य आपको आपके कर्तव्य का बोध कराना है।
अतः जनेऊ बदलना (उपकर्म संस्कार) किसी दिखावे के लिए नहीं किया जाता - अपितु पूर्ण जागरूकता, संकल्प के साथ किया जाता है कि - मैं जो कुछ भी करूँगा पूरी कर्तव्य परायणता, ज़िम्मेदारी के साथ करूँगा
रक्षाबंधन पर्व
अतः रक्षा बंधन पर हम राखी बांधते हैं जिसे पश्चिमी सभ्यता मैं फ्रेंडशिप बैंड (friendship band) के नाम से जाना जाता है। यह अभी हाल ही में प्रचलित हुआ है जबकि प्राचीन काल से रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाता है। यह धागा बहन भाई की कलाई पर बांधती है और भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देता है। अतः इस पर्व के दिन सभी बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती हैं। बहनें अपने सिर्फ सगे भाई की कलाई के साथ साथ और जिस किसी को भी अपना भाई मानती हैं उन सब की कलाई पर राखी बांधती हैं। यह प्रथा हमारे देश मैं सदियों से प्रचलित है और एक बहुत बड़े पर्व के रूप में श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
पूर्णिमा और उत्सव
श्रावण पूर्णिमा के बाद भादों पूर्णिमा आती है और यह भी एक पर्व की तरह मनाया जाता है। उसके बाद अनंत पूर्णिमा अर्थात अनंत के पूनम का चाँद ! और उसके पश्चात आती है शरद पूर्णिमा। इस रात्रि चाँद बहुत अधिक बड़ा और सुन्दर दिखाई देता है। प्रायः अगर किसी का चेहरा बहुत ही बड़ा और दमकता हुआ प्रतीत होता है, तो उसे शरद पूर्णिमा की उपमा से संबोधित से किया जाता है। शरद पूर्णिमा की रात्रि का चन्द्रमा पूरे वर्ष मैं सबसे उत्तम, बड़ा व बेहद खूबसूरत होता है। अगर किसी का व्यक्तित्व अति सौम्य, मधुर, मनमोहक होता है तो प्रायः “शरद पूर्णिमा निभाई जा रही है” कह कर संबोधित किया जाता है। ऐसी मान्यता है की जगत जननी माँ का चेहरा बिलकुल शरद पूर्णिमा के चाँद जैसा है। इस कारण से भी यह अति पावन पूर्णिमा के रूप में मनाई जाता है। इसके पश्चात आती है कार्तिक पूर्णिमा जिस रात्रि दीप जला कर उत्सव मनाया जाता है। अतः प्रत्येक पूर्णिमा का अपना महत्व है और इनके साथ कोई न कोई उत्सव जुड़ा हुआ है।
ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा पर कृष्ण सभी गोपियों के साथ नृत्य करते हैं। हालाँकि गोपियाँ बहुत हैं और कृष्ण मात्र एक, तब कृष्ण ऐसी लीला करते हैं कि लगता है कि वो एक से अनेक में परिवर्तित हो गए हैं ; तब प्रत्येक गोपी को लगता है कि वो कृष्ण के साथ ही नृत्य कर रही है और दिव्य आनंद का अनुभव करती है ! सभी कृष्ण को अपना अभीष्ट मानते हैं और वो एक एक के साथ नृत्य करते हैं। शरद पूर्णिमा कि ऐसी महत्ता है। इस रात्रि खीर बनायी जाती है। फिर उसे चाँदनी में रख कर उसका सेवन किया जाता है और इस प्रकार उत्सव मनाया जाता है। अगर किसी कारणवश आप अपने जीवन को उत्सव में परिवर्तित नहीं कर पा रहे तो, तो चलिए महीने में कुछ दिन ही सही। और अगर यह कुछ दिन भी बहुत ज़्यादा हैं तो कम से कम माह में एक दिन ही सही - पूर्णिमा को तो उत्सव मना सकते हैं - अतः १२ उत्सव एक वर्ष में !
हमारा मन मस्तिष्क चन्द्रमा से जुड़ा हुआ है - इसी कारणवश अमावस्या और पूर्णिमा के दिन हमारे मन में उतार चड़ाव आता है। वेदों में कहा गया है कि “चन्द्रमा मनसो जातः” अर्थात मन चन्द्रमा से नहीं अपितु चन्द्रमा मन से बना हुआ है। इसी कारण से पूर्णिमा और अमावस्या का महत्व है। सम्पूर्ण जीवन विशेष, महत्वपूर्ण है। मैं यह कहूंगा कि ज्ञानी के लिए ही यह जीवन विशेष है, महत्वपूर्ण है।
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के ज्ञान वार्ता से संकलित