पतंजलि योग सूत्र में अभी तक हमने जाना की अभ्यास और वैराग्य मन की पांच वृत्तियों से मुक्ति के उपाय हैं। मन को युक्तिपूर्वक वर्तमान क्षण में लेकर आने के लिए किया गया प्रयास ही अभ्यास है। महृषि पतंजलि कहते हैं की ऐसा प्रयास जब निरंतर, बिना अंतराल के, लम्बे समय तक एवं सत्कारपूर्वक किया जाता है, वही अभ्यास है। इस ज्ञान पत्र में हम अभ्यास के सत्कार की महत्ता को समझेंगे।
यदि तुम्हें कुछ काम करना हो और तुम्हारे लिए वह नया काम हो, यदि तुम यह पहली बार कर रहे हो, तब तुम पूरे आदर, पूरे दिल, पूरी तन्मयता और जागरूकता से करोगे पर यदि यही काम अगले छह माह तक तुम्हें रोज करना हो तो तुम उतने उत्साह से नहीं करोगे। जैसे जैसे समय बीतता जाता है इसके साथ वह जागरूकता और आदर भी क्षीण होने लगता है।
पहले दिन जब तुम ध्यान के लिए बैठते हो तब वह अद्भुत लगता है क्यूंकि तुम पूरी तरह से वही होते हो और आदर के साथ ग्रहण कर रहे होते हो। कुछ समय बाद तुम जैसे तैसे बैठते हो, आँखें मूंदते हो और करने मात्र के लिए करते हो तो वह प्रभाव नहीं होता। कभी कभी तुम्हारा ध्यान अथवा क्रिया में अनुभव उतना गहरा नहीं होता, ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि तुम इसके लिए आदर सत्कार को खो चुके होते हो। इसका अर्थ यह नहीं की तुम इसका अनादर करते हो पर वह जागरूकता, तन्मयता कम हो गयी होती है।
इसीलिए जब भी तुम समय समय पर कोर्स में इकट्ठे होते हो तब तुम्हारा ध्यान गहरा होता है क्यूंकि वहां तुम आदर के साथ इसे ग्रहण करते हो, लेते हो। तुम इस ज्ञान का आदर कर रहे होते हो, स्वयं का आदर कर रहे होते हो।
आदर सत्कार क्या है ?
कृतज्ञता के साथ वर्तमान क्षण के प्रति पूर्ण सजगता ही आदर सत्कार है।
जब तुम एक पर्वत का आदर करते हो तो इसका अर्थ है की तुम उसको अपने पूरे ह्रदय से निहार रहे हो, पूरे मन से, बिना किसी सवाल जवाब के, प्रफुल्लित और आभारी होकर मात्र सम्मान कर रहे हो। ऐसे ही जब आप किसी नोबेल पुरुस्कार विजेता वैज्ञानिक को सम्मानपूर्वक मिलते हो तो इसका अर्थ है की जब वह वैज्ञानिक वहां है, तब तुम पूरी तरह से उसी क्षण में हो, पूरे मन से उनके साथ हो।
सत्कार से ध्यान में गहराई बढ़ती है।
जीवन में प्रत्येक क्षण के लिए आदर और सत्कार का होना अभ्यास है। ऐसे ही पूरी जागरूकता के साथ अपने शरीर को आदर करना आसन है, श्वांस को आदरपूर्वक एक विशेष लय के साथ रखना प्राणायाम है।
कोई भी अभ्यास यदि एक लम्बी अवधि के लिए बिना अंतराल के किया जाए, तभी वह सही मायने में अभ्यास है। हर दिन उसी उत्साह और आदर के साथ जब अभ्यास करते है (हैं), तब वह स्थापित हो जाता है, यह महत्त्वपूर्ण बात है। किसी भी दिन तुम्हें लगे की तुम्हारा ध्यान संतोषजनक नहीं है, उतना अच्छा नहीं है, तब तुम देखो की क्या तुम्हारा अभ्यास निरंतर है, यदि हाँ तो देखो की क्या मैं इस मंत्र का आदर कर रहा हूँ? क्या मैं अपने साथ बैठने के इस समय का आदर कर रहा हूँ? क्या मैं अपने भीतर के जीवन का आदर कर रहा हूँ? हर एक क्षण के प्रति आदर करो।
वर्तमान क्षण का आदर
बाकि सब छोड़ के इस क्षण का सजगता के साथ आदर करो, जैसा भी है यह क्षण आदर करो। इस ज्ञान का आदर करो, यह मेरे गुरु का ज्ञान है, ज्ञान का सम्मान करना ही गुरु का सम्मान है। यदि तुम गुरु का सम्मान नहीं करते तो तुम्हारे ध्यान में गहराई नहीं आती।
क्यूंकि आदर और सम्मान करने से चेतना समग्र होती है, यह तुम्हें इसी क्षण में केंद्रित होने में, जागरूक होने में सहायता करता है। यदि तुम गुरु का सम्मान नहीं करते तो गुरु को कुछ नुकसान नहीं है, तुम्हारे स्वयं के मन को नुकसान है, क्यूंकि मन वर्तमान क्षण में पूरी तरह नहीं आ पाता और अपने ही अस्तित्व में नहीं डूब पाता।
सत्कार सेवित, ज्ञान के स्त्रोत का सत्कार, गुरु का सत्कार, स्वयं का सत्कार, यही अभ्यास है।
क्या अभ्यास ही पर्याप्त है?
महर्षि पतंजलि कहते हैं नहीं, जैसे एक बैलगाड़ी के दो पहिये होते हैं, वैसे साधना के पथ पर अभ्यास और वैराग्य दोनों का होना आवश्यक है।
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(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों के परिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें।)