आगे पतंजलि कहते हैं,
सूत्र 37: वीतरागविषयं वा चित्तम्
अपने मन को आत्मज्ञानी के विचारों में ही व्यस्त रखो। तुम्हारा मन जल की तरह है, जैसे जल को जिस बर्तन में डालो, वह उसी का आकार ले लेता है उसी तरह मन को जैसे विचारों में संलग्न रखो, मन वैसा ही बन जाता है। मन का ध्यान जिस पर हो, उसमें वैसे ही गुण विकसित होने लगते हैं।
इसीलिए अगले सूत्र में पतंजलि कहते हैं -
वीतराग - जो तृष्णाओं से मुक्त हैं, राग द्वेष के परे जा चुके हैं, उनके बारे में सोचने से, ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचने से हमारे भीतर भी उन्हीं गुणों का विकास होने लगता है।
मन वायु की तरह है। जैसे हवा को कोई निश्चित स्थान नहीं होता, वह हर जगह होती है उसी तरह मन भी सब जगह फैला हुआ होता है, वीतराग चित्त हर जगह फैला हुआ होता है। वही वायु स्वरुप वीत राग चित्त तुम्हारे भीतर आने लगता है।
मन व्योम की तरह, आकाश तत्त्व की तरह भी है। तुम्हारी चेतना व्योम की तरह आकाश की तरह सर्वव्यापी है।
उनसे राग द्वेष न हो, इसलिए कहते हैं कि गुरु को व्यक्ति स्वरुप में न देखो। ऐसा देखने से उनके प्रति भी पसंद- नापसंद, राग-द्वेष, क्रोध-अहंकार भी आता है। गुरु को विशुद्ध चेतना की तरह देखो। फिर भी यदि कुछ विचार आते हैं, पसंद नापसंद राग द्वेष आता भी है, तब उससे संघर्ष न करने लगो, विश्राम करो और ऐसे विचारों को शांत हो जाने दो।
गुरु पर ध्यान ले जाने मात्र से ही तुम उस ऊर्जा को ग्रहण करने लगते हो, उस अवस्था को प्राप्त करने लगते हो। तुम एक प्रयोग करके देखो, एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचो जो बहुत शरारती है, उनके सोचने मात्र से ही हमारे भीतर शरारत के विचार आने लगते हैं। अब एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचो जो तुमसे बहुत ईर्ष्या करते हों, तुम सोचते ही अपने भीतर एक बेचैनी सी महसूस करोगे। इसी तरह कोई ऐसे दुखी व्यक्ति के बारे में सोचो जो शराब और नशे में डूबे रहते हों, उनके बारे में सोचने मात्र से भारीपन आने लगता है।
अब ऐसे किसी व्यक्ति के बारे में सोचो जिनसे आपको बहुत प्रेम हो, ऐसा करते ही भीतर अच्छी संवेदनाएं होती हैं। तुम्हारे अपने ही मन के पार जाने के लिए गुरु सहायक होंगे। उनकी संवेदनाएं और ऊर्जा रास्ता देंगी। यह संवेदनाएं गुरु के शरीर से पैदा होती हैं जिसमें चेतना राग द्वेष से परे है, पूरी तरह से खिल उठी है।
वीतरागविषयं वा चित्तं - अपने ध्यान को आत्मज्ञानी के विचारों में रखने से तुम्हारी चेतना जीवंत हो उठती है, ओजस से भर जाती है। इसीलिए जीसस ने कहा कि कोई और रास्ता है ही नहीं, तुम्हें ईश्वर के पास मुझसे होकर ही जाना होगा।
तुम्हें गुरु के मार्ग से ही निकल कर जाना होगा। गुरु जीते जागते उदाहरण हैं।
सूत्र 39 : यथाभिमतध्यानाद्वा
ध्यान की विभिन्न-विभिन्न प्रक्रियाएं हैं, उनमें से किसी को भी करने से ध्यान घटने लगता है। ध्यान की अनेक प्रक्रियाओं में से किसी भी एक को चुनकर, जो तुम्हें पसंद हो, उसके निरंतर अभ्यास से यह संभव है। ऐसा नहीं कि आज कुछ किया और कल कुछ और करने लगे, किसी भी एक प्रक्रिया का ही लम्बे समय तक अभ्यास करना चाहिए।
एक ही रास्ता चुनो। आज तुम किसी गुरु के पास आये, कल किसी और के पास और परसों फिर कोई अलग पुस्तक पढ़ ली, ऐसा करने से तुम उलझ जाते हो। सब रास्ते और प्रक्रियाएं अच्छी हैं पर तुम किसी एक को पकड़ो और उसमें ही गहरे उतरो।
सभी रास्तों का सम्मान करो, किसी की निंदा मत करो पर एक रास्ते को पकड़ कर आगे बढ़ो।
योग के पथ पर प्रगति का संकेत क्या है?
महृषि पतंजलि कहते हैं -
सूत्र 40 - परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः
जो योग के पथ पर बढ़ते हैं, उनके लिए छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा भी सञ्चालन के दायरे में आ जाता है। प्रकृति तुम्हें प्रेम करने लगती है और तुम्हें सम्बल प्रदान करने लगती है। छोटे से छोटे अणु और बड़े से बड़ा ब्रह्माण्ड भी उनसे संचालित होने लगते हैं।
आगे पतंजलि कहते हैं, निद्रा और स्वप्न का ज्ञान भी बड़ा रोचक है।
निद्रा और स्वप्न क्या हैं, उनका ज्ञान कैसे हमें वर्तमान क्षण में ले आता है, जानने के लिए पढ़िए अगला ज्ञान पत्र
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(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों केपरिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। )