अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥३५॥
जब कोई व्यक्ति अहिंसा में स्थापित हो जाता है, तो उसकी उपस्थिति मात्र से ही हिंसा छूट जाती है।.
यदि हम अहिंसा में प्रतिस्थापित हो जाते हैं तब हमारी मौजूदगी से ही दूसरे प्राणियों की हिंसा शांत हो जाती है। अगर कोई हम पर आक्रोश करने आता है। तो हमारे निकट आते ही , हमारे अहिंसात्मक छंदों के कारण वह शांत पड़ जाता है। वह हिंसा करना बंद कर देता है। बुद्ध के बाद एक और संत हुए जिनको यहाँ पश्चिम में बहुत लोग नहीं जानते। उनका नाम था महावीर। उन्होंने एक नए धर्म , जैन धर्म, की स्थापना की। उसमें उन्होंने अहिंसा को ही अधिक महत्वपूण बताया है। ऐसा कहा जाता है कि वे जब चलते थे तो उनके आसपास बीस किलोमीटर तक लोग हिंसा मुक्त हो जाते थे। यहाँ तक भी कहा गया है कि काँटे भी किसी को नहीं चुभत थे । काँटे भी नरम हो जाते थे। जब कोई व्यक्ति अहिंसा में स्थापित हो जाता है, तो उसकी उपस्थिति मात्र से ही दूसरे प्राणियों की हिंसा छूट जाती है।"
ऐसा क्यों है कि जब हम कुछ लोगों से बात करते हैं या उनसे मिलते हैं, तो उन पर हिंसक या क्रोधित क्यों हो जाते हैं? क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनमें कुछ बीज हैं जिसमें हिंसा के स्पंदन हैं। वह हिंसक स्पंदन हिंसा को ही खींचती है। इसलिए अहिंसा का अभ्यास करना बहुत उपयोगी है। यह सहनशीलता को भी जन्म देता है।
मान लीजिए हम बैठे हैं और कोई आकर हमको चिढ़ाता है। हम मन ही मन क्रोधित होते हैं और सोचते हैं, "हे भगवान। मैं इस व्यक्ति को मारूँ”। ऐसे विचार हमारे मन में उत्पन्न होते हैं। हम उस व्यक्ति को मारते तो नहीं हैं क्योकि मार नहीं कर सकते। लेकिन हमें उन विचारों को ज़रूर देखना चाहिए जो हमे किसी को मारने के लिए बाध्य करते हैं। वह हिंसा क्यों पैदा हो रही है? हिंसा का स्रोत क्या है? जब हम हिंसा के स्रोत को देखते हैं तो हम पाते हैं कि हिंसा विलीन हो जाती है और शांति का उदय होता है। योग वह आंतरिक शांति लाता है जो बदले में अहिंसा की स्थापना करती है। अहिंसा का अभ्यास दोतरफा यातायात है। अहिंसा मन का मिलन, मन की शांति लाती है और जब आप शांत होते हैं, तो आप स्वाभाविक रूप से अहिंसक हो जाते हैं ।
दूसरा सिद्धांत है - सत्य ।
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥३६॥
जब तुम सत्य में स्थापित हो जाओगे तब कर्म का फल मिलेगा।
जब हम सत्य में प्रतिस्थापित हो जाते हैं, तब हमारे कर्म फलापते हैं। हम कोई भी कार्य करते हैं तो वह फलदायक हो जाते हैं बहुत से मनुष्य कर्म तो करते हैं परन्तु उन्हें उसका कोई फल नहीं मिलता। क्योंकि उनके भीतर सत्य चेतना नहीं है। जब भीतर सत्य की चेतना होगी, जब हम सत्य में स्थापित हो जाएँगे तो कर्म का फल तुरंत कर्म करने के उपरांत ही प्राप्त हो जाता है। यह चेतना का गुण है।
भले ही आप झूठ बोल रहे हों लेकिन आप में यह कहने का साहस होता है कि "मैं अभी झूठ बोल रहा हूँ"।
आप सत्य ही बोल रहे हैं।
जब आप झूठ बोल रहे होते हैं तो आपकी चेतना ठोस होती है। वह सीधी और सरल नहीं होती है। सब अस्त-व्यस्त होता है। उसके पीछे कोई ताकत नहीं होती। है ना? एक व्यक्ति जो सत्य के लिए प्रतिबद्ध है, वह अस्तित्व के आभास के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे व्यक्ति को सफलता आसानी से मिलती है। ऐसा नहीं है कि उसे असफलता का सामना नहीं करना पड़ता है लेकिन वह जीत जाता है। "सत्यमेव जयते"।
"हमें भगवान पर भरोसा है " यह नारा अमेरिकी डॉलर पर लिखा होता है। पर भारत में लिखते हैं "सत्य की ही जीत होती है"। सत्य की जीत अवश्य होगी, हालांकि ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वह जीत नहीं रहा है।